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२२४ | योगबिन्दु
ये संज्ञाएँ क्रमशः वेदान्त, बौद्ध तथा जैन दर्शन से सम्बद्ध हैं ।
[ ४६५ ]
1
शं लेशीसंज्ञिताच्चेह कृत्स्नकर्मक्षयः सोऽयं गीयते वृत्तिसंक्षयः ॥
विकास के पथ पर आगे बढ़ती हुई आत्मा अन्ततः शैलेशी समाधि - पर्वतराज मेरु के सदृश अडोल, अप्रकम्प, स्वनिष्ठ एवं सुस्थिर अवस्था प्राप्त कर लेती है । समग्र कर्म क्षीण हो जाते हैं । उसे वृत्तिसंक्षय कहा जाता है ।
[ ४९६ ] क्रियाविष्टः योगज्ञ मुक्तिरेष
तथा तथा निष्ठाप्राप्तस्तु कर्म-पार्थक्य साधने, शुद्धावस्था प्राप्त करने, समाधि - आत्मलीनता है । परिपक्वावस्था पा लेने
आत्मस्थ होने का क्रम
पर -
र - सर्वकर्म निवृत्ति
रूप परम शुद्धावस्था निष्पन्न हो जाने पर उसे योगवेत्ताओं ने मुक्ति कहा है ।
[ ४६७ ]
समाधेरुपजायते
1
संयोगयोग्यताभावो कृतो न जातु
संयोगो
यदिहात्मतदन्ययोः भूयो नैवं भवस्ततः ॥
यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा के कर्म के साथ संयोग की— कर्म बाँधने की योग्यता का अभाव हो जाता है । फिर आत्मा का कर्मों के साथ संयोग या सम्बन्ध नहीं होता । इसीलिए उसे पुन: कभी संसार में - जन्म - मरण के चक्र में आना नहीं पड़ता ।
[ ४६८ ]
योग्यताऽऽत्मस्वभावस्तत् तत्तत्स्वभावतायोगादेतल्लेशेन
सम्भव है ?
समाधिरभिधीयते ।
उदाहृतः 11
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निवर्तनम् । दर्शितम् 11
योग्यता जब आत्मा का स्वभाव है, तब उसकी निवृत्ति कैसे
कथमस्या
इसका उत्तर है -- प्रस्तुत योग्यता का निवर्तन - अपगम करना भी आत्मा का स्वभाव है, जिसके कारण योग्यता निवृत्त हो जाती है ।
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