Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 311
________________ २२६ । योगबिन्दु [ ५०२ ] नवताया न चात्यागस्तथा नातत्स्वभावता । घटादेर्न न तद्भाव इत्यत्रानुभवः प्रमा ॥ घड़ा अपनी नवीनता नहीं त्यागता हो, ऐसा नहीं है । नवीनता उसका स्वभाव नहीं है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । नवीनता छोड़ने पर घड़ा घड़ा नहीं रहता, उसका अस्तित्व मिट जाता हो, ऐसा भी नहीं है अर्थात् नवीनता घड़े का स्वभाव-विशेष है, जिसका वह परित्याग करता है, फिर भी घड़ा रहता है। प्रत्यक्ष अनुभव से यह ज्ञान होता ही है-यह साक्षात् अनुभव-सिद्ध है। [५०३ ] योग्यतापगमेऽप्येवमस्य भावो व्यवस्थितः । सवौं त्सुक्यविनिर्मुक्तः स्तिमितोदधिसन्निभः ॥ कर्म-सम्बद्ध होने की अपनी योग्यता का त्याग कर देने पर भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, जो उत्सुकता, आकांक्षा, चिन्ता आदि से रहित, समुद्र की तरह शान्त एवं सुस्थिर बना रहता है। [५०४ ] एकान्तक्षीणसंक्लेशो निष्ठितार्यस्ततश्च सः । निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्माऽवतिष्ठते ॥ कर्म-बद्ध होने की योग्यता का परित्याग कर देने पर-कर्म-बन्ध का क्रम अवरुद्ध हो जाने पर आत्मा, जिसके अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश रूप क्लेश क्षोण हो गये हों, जो कृतकृत्य हो, जो करने योग्य था, उसे जो कर चुको हो, विघ्न-बाधाओं से रहित हो, शाश्वत आनन्द से युक्त हो, मोक्ष में संस्थित हो जाती है--मुक्तावस्था प्राप्त कर लेती है। [ ५०५ ] अस्यावाच्योऽयमानन्दः कुमारी स्त्रीसुखं यथा । अयोगो न विजानाति सम्यग् जात्यन्धवद् घटम् ॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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