Book Title: Jain Yog Granth Chatushtay
Author(s): Haribhadrasuri, Chhaganlal Shastri
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 316
________________ परिणामित्व | २३१ मिटने का प्रसंग नहीं होता । जो मुक्त हैं, उनका पुनः मुक्त होना न्यायसंगत नहीं है । वैसा न मानना अर्थात् मुक्त की पुन: मुक्ति मानना अप्रासंगिक है, तत्त्व-व्यवस्था में बाधक है। [ ५२१ ] कल्पितादन्यतो बन्धो न जातु स्यादकल्पितः । कल्पितश्चेत् ततश्चिन्त्यो ननु मुक्तिरकल्पिता ॥ । किसी अन्य कल्पित-कल्पनाप्रसूत-अयथार्थ हेतु से अकल्पितयथार्थ बन्ध नहीं हो सकता। यदि कहा जाए कि बन्ध भी कल्पित ही है तो यह चिन्त्य-दोषपूर्ण है, बाधित है, क्योंकि जब मुक्ति निश्चित रूप से अकल्पित है तो बन्ध भी अकल्पित ही होगा। बन्ध से छूटना ही तो मुक्ति है। वह अकल्पित होगा तभी उससे छुटकारा सम्भव होगा। कल्पित से, जिसकी कोई वास्तविक सत्ता ही नहीं है, कैसा छुटकारा ! [ ५२२-५२३ ] नान्यतोऽपि तथाभावादृते तेषां भवाविकम् । ततः किं केवलानां तु ननु हेतुसमत्वतः ॥ मुक्तस्येव तथाभावकल्पना यन्निरर्थका । स्यावस्यां प्रभवन्त्यां तु बोजावेवाङ कुरोदयः ॥ अन्य-आत्मेतर विजातीय तत्त्व-कर्म अपना सांसारिक अस्तित्व लिए हुए हैं । फलतः वह तद्गत परिणमन से संपृक्त है। यदि आत्मा में तत्सम्बद्ध भावों में परिणत होने की योग्यता न मानी जाये तो भिन्न-भिन्न संसारावस्थाओं का अनुभव करना उसके लिए सम्भव नहीं होता। यदि कहा जाये कि विजातीय तत्त्व की सम्बद्धता के बिना ही आत्मा की ऐसी योग्यता है तो इसका उत्तर यों है-विजातीय तत्त्व (कार्य) के सम्बन्ध के बिना आत्मा में ऐसी योग्यता स्वीकार करना संगत नहीं होता। उदाहरणार्थ--जैसे मुक्तात्मा में ससारावस्था में आने की योग्यता नहीं मानी जाती; जिसका कारण उसका कर्मों से असम्बद्ध होना है। इसका फलित यह हुआ, ऐसी योग्यता, अयोग्यता का आधार कर्मों से सम्बद्धता या असम्बद्धता है। फिर अमुक्त आत्माएँ कर्मों से असम्बद्ध होती हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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