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२२२ | योगबिन्दु क्रम में प्रवृत्त होती है, ऐसा सांख्य - योग के पूर्ववर्ती आचार्यों ने कहा है।
यह भी पुरुष (आत्मा) के अपरिणामी होने पर निरर्थक सिद्ध होता हैं ।
जैसाकि सांख्याचार्य ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में उल्लेख किया है, सृष्टि-क्रम के सम्बन्ध में सांख्य-दर्शन में माना गया है कि पुरुष के दर्शनार्थ, पुरुष-प्रकृति, महत्, अहंकार, पाँच तन्मात्राएँ, मन, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय तथा पाँच महाभूत-इन सबको देखे, इस हेतु तथा पुरुष के कैवल्य-मोक्ष हेतु प्रकृति की प्रवृत्ति होती है।'
इसका अभिप्राय यह है-यों पुरुष की दिदृक्षा निवृत्त होगी, अपने स्वरूप का उसे भान होगा। (पच्चीस) तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान कर वह मुक्त हो जायेगा।
__ महर्षि पतंजलि ने भी इसी आशय की ओर संकेत किया है कि द्रष्टा (पुरुष या आत्मा) को दर्शन में प्रवृत्त करने हेतु, उसका अपवर्ग-मोक्ष साधने हेतु दृश्य-प्रकृति आदि का प्रयोजन है।'
इन सन्दर्भो को दृष्टि में रखते हुए ग्रन्थकार का प्रतिपादन है कि पुरुष यदि अपरिणामी है तो यह सब असिद्ध होता है। पुरुष के परिणमनशील होने पर ही ऐसा संभाव्य है।
[ ४६० ] परिणामिन्यतो नीत्या चित्रभावे तथाऽऽत्मनि ।
अवस्थाभेदसंगत्या योगमार्गस्य संभवः ॥
आत्मा परिणामी तथा विविध भावापन्न है, यह न्याय-संगत है । ऐसा होने से ही उसमें भिन्न-भिन्न अवस्थाएं संगत ठहरती हैं। तभी योग-मार्ग की संभावना घटित होती है।
१. पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य ।
पङ ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ --सांख्यकारिका २१ २. पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन् ।
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ।।--सांख्यकारिका १ गौडपादभाष्य ३. तदर्थ एव दृश्यस्यात्सा ।
-पातञ्जल योग सूत्र २.२१
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