________________
२२० | योगबिन्दु
एकान्तनित्यतायां भवापवर्गभेदोऽपि
[ ४८३ ]
तु
न
तत्तथैकत्वभावतः । उपपद्यते ॥
मुख्य
आत्मा की एकान्त नित्यता मान लेने पर वह सर्वथा एक ही भाव में अवस्थित रहेगी। वैसी स्थिति में संसार और मोक्ष -- आत्मा की संसारावस्था तथा मुक्तावस्था के रूप में कोई भेद घटित नहीं होता, जो वस्तुतः मुख्य भेद है ।
[ ४८४ ] स्वभावापगमे यस्माद् व्यक्तव तयाऽनुपगमे त्वस्य रूपमेकं
Jain Education International
परिणामिता । हि ॥
सदैव
अपेक्षा भेद से आत्मा अपने स्वभाव का (अंशतः) परित्याग कर दूसरे स्वभाव को ग्रहण करती है । अथवा जब आत्मा मोक्ष प्राप्त करती है तो संसारावस्था रूप स्वभाव का परित्याग होता है, तत्प्रतिकूल शुद्ध यात्मक स्वभाव का अधिगम होता है । इससे आत्मा की परिणामिता - परिणमनशीलता स्पष्ट है । यदि आत्मा परिणमनशील न हो तो सदा उसका एक ही रूप रहे ।
यहाँ स्वभाव शब्द आत्मा के पर्यायात्मक स्वरूप के अर्थ में प्रयुक्त है, जो परिवर्तनशील है ।
[ ४८५ ]
स्याarraficha
वा ।
तत् पुनर्भाविकं वा आकालमेकमेतद्धि भवमुक्तो न सङ्गते ॥
उपर्युक्त रूप में यदि यह स्वीकार किया जाये कि आत्मा सदा एक ही रूप में रहती है तो उसका प्रतिफल यह होगा कि या तो वह सदा सांसा"रिक रूप में रहेगी या मोक्षावस्था में रहेगी । संसारावस्था में आना या उससे छूटना - ये दोनों ही बातें वहाँ घटित नहीं होतीं । क्योंकि यदि वह संसार में है तो सदा से है, सदा रहेगी। यदि वह मोक्ष में है तो वहाँ भी वैसी ही स्थिति होगी ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org