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२१८ | योगबिन्दु संकल्प-विकल्प नष्ट हो जाते हैं । ग्राह्य पदार्थ ज्ञान में विप्रतिपत्ति पैदा नहीं करते । आत्मा आसक्तिग्रस्त नहीं होती।
[ ४७६ ] स्थिरत्वमित्थं न प्रेम्णो यतो मुख्यस्य युज्यते ।
ततो वैराग्यसंसिद्ध मुक्तिरस्य नियोगतः ॥
प्रेम, जिसे बन्धन का मुख्य हेतु माना जाता है, अपने आप में स्थिर नहीं है । वह तो जैसा कहा गया है, मोह आदि से जनित है। उनके मिट जाने पर वैराग्य-रागातीत या अनासक्त भाव उत्पन्न हो जाता है । फलता मुक्ति प्राप्त होती है।
[ ४७७ ] बोधमात्रेऽद्वये सत्ये कल्पिते सति कर्मणि । कथं सदाऽस्याभावादि नेति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥
बोध को ही एकमात्र सत्य-तत्त्वरूप में स्वीकार किया जाए तो कर्म कल्पित-अयथार्थ सिद्ध होता है । वैसा होने पर वैराग्यादि से प्रतिफलित मुक्ति, शुभ, अशुभ, क्रिया से प्रतिफलित सुख-दुःख आदि या तो सदा प्राप्त रहें या अप्राप्त रहें। क्योंकि जब कर्म है ही नहीं, मात्र ज्ञान है तो उस (ज्ञान) की अनुकूल प्रतिकूल स्थिति के अनुरूप सब होगा। पर, इस जगत् में वस्तुस्थिति वैसी है नहीं। इस पर सम्यक् रूप में विचार करें।
[ ४७८ ] एवमेकान्तनित्योऽपि .हन्तात्मा नोपपद्यते। । स्थिरस्वभाव एकान्ताद् यतो नित्योऽभिधीयते ॥
आत्मा को एकान्त-नित्य मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । एकान्तनित्य का तात्पर्य आत्मा का स्थिर-अपरिवर्तनशील, अपरिणमनशील स्वभाव-युक्त होना है।
[ ४७६ ] तक्यं कर्तृभावः स्याद् भोक्तृभावोऽथवा भवेत् । उभयानुभयभावो वा सर्वथाऽपि न युज्यते ॥
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