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२१६ | योगविन्दु
[ ४६६ ] भावाविच्छेद एवायमन्वयो गीयते यता ।
स चानन्तरभावित्वे हेतोरस्यानिवारितः।।
पदार्थों में भावों या पर्यायों की अविच्छिन्नता-पर्याय-शृंखलाबद्धता उनकी अन्वय-संगति का हेतु है। उसी के द्वारा पदार्थों के पूर्व-भाव तथा उत्तर-भाव की पारस्परिक सम्बद्धता संयोजित एवं सुस्थिर रहती है।
[ ४७० ] स्वनिवृत्तिस्वभावत्वे क्षणस्य नापरोदयः।
अन्यजन्मस्वभावत्वे स्वनिवृत्तिरसंगता ॥
यदि कोई पदार्थ उत्पन्न होकर मिट जाने का स्वभाव लिए हुए हो अर्थात् पहले क्षण उत्पन्न हुआ, अगले क्षण नष्ट हुआ, यदि ऐसा हो तो वह अगले क्षण दूसरा पदार्थ उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि वह अन्य को उत्पन्न करने का स्वभाव लिये हुए माना जाए तो उसकी निवृत्ति-नाश असंगत ठहरता है । जो स्वयं उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाए, वह अन्य को कैसे उत्पन्न करे।
[ ४७१ ] इत्थ द्वयकभावत्वे न विरुद्धोऽन्वयोऽपि हि । व्यावृत्त्याद्य कभावत्वयोगतो भाव्यतामिदम् ॥
यदि एक पदार्थ में दोनों भाव -पूर्व पर्याय की व्यावृत्ति-व्यपगम या विनाश तथा दूसरे पर्याय का उत्साद स्वीकार किया जाए तो अन्वयसंगति में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। इस पर चिन्तन करें।
[ ४७२ ] अन्वयोऽर्थस्य न आत्मा चित्रभावो यतो मतः ।
न पुननित्य एवेति ततो दोषो न कश्चन ॥ . आत्मा एकान्त रूप में नित्य नहीं है। मूल रूप में नित्य होने के बावजूद उसमें चित्र-भाव पर्यायों की दृष्टि से विविधता-विभिन्न रूपात्मकता है। ऐसा मानने में कोई दोष नहीं आता। ऐसा हमारा दृष्टिकोण है।
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