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[ २३७ ]
पठितः सिद्धिदूतोऽयं प्रत्ययो ह्यत एव हि । सिद्धिहस्तावलम्बश्च तथाऽन्यैर्मुख्ययोगिभिः
विधा शुद्ध अनुष्ठान | १४५
आत्म प्रत्यय को सिद्धिदूत कहा गया है । सिद्धि की ओर आगे बढ़ते साधक को हाथ का सहारा देकर वह आगे बढ़ने में सहयोग करता है । अन्य प्रमुख योगियों ने ऐसा कहा है ।
1 जैसे सीढ़ियों द्वारा महल में चढ़ते पुरुष को यदि किसी के हाथ का सहारा मिल जाता है तो उसे चढ़ने में सुविधा होती है, उसी प्रकार आत्मप्रतीति के सहारे साधक सुविधापूर्वक ऊर्ध्व - गमन करने में समर्थ होता है । [ २३८ ]
अपेक्षते ध्रुवं ह्येनं नान्यः प्रवर्तमानोऽपि तत्र
सयोगारम्भकस्तु यः 1 देवनियोगतः
"
सद्योगारम्भक - श्रेष्ठ योग प्रारंभ करने वाला साधक निश्चित रूप से आत्मप्रत्यय की अपेक्षा रखता है। उधर प्रवृत्त होता हुआ भी अन्य व्यक्ति विपरीत संस्कारवश आत्मप्रतीति के अभाव में सद् योग - उत्तम योगसाधना का शुभारंभ नहीं कर पाता ।
[ २३६ ]
आगमात् सर्व एवायं व्यवहारः स्थितो यतः । त्रापि हाटिको यस्तु हन्ताज्ञानां स शेखरः ॥ योगमार्ग का समग्र व्यवहार, आचार-विधि आगम के अनुरूप स्थित है - आगम- सिद्ध है । फिर भी दुराग्रही व्यक्ति उससे विपरीत मार्ग पर चलता है । आश्चर्य है, वह कैसा मूर्ख - शिरोमणि है ।
[ २४० ]
तत्कारी स्यात् स नियमात् तद्द्वेषी चेति यो जडः । आगमार्थे समुल्लंघ्य तत एव प्रवर्तते
॥
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जो मूर्ख मोक्ष के लिए क्रिया करता है पर मोक्ष-निरूपक आगम से द्व ेष करता है तो वह एक प्रकार से मोक्ष का ही द्वेषी है । आगम के अर्ध
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