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चारित्री | १७९
एक-एक प्रदेश निकालने की यदि कल्पना की जाय तथा यों निकालते. निकालते जितने काल में वह कुआ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाए; वह कालपरिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है। इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम से इसका काल अंख्यात गुना अधिक होता है।'
इस कोडाकोड़ पल्योपम को सागरोपम कहा जाता है। अर्थात् दस करोड़ पल्योपम को एक करोड़ पल्योपमं से गुणा करने से जो गणनफल आता है, वह एक सागरोपम है।'
[ ३५३ ] लिङ्ग मार्गानुसार्येष श्राद्धः प्रज्ञापनाप्रियः ।
गुणरागी महासत्त्वः सच्छक्यारम्भसंगत:
अध्यात्म-पथ का अनुसरण, श्रद्धा, धर्मोपदेश-श्रवण में अभिरुचि, गुणों में अनुराग, सदनुष्ठान में पराक्रमशीलता तथा यथाशक्ति धर्मानुपालन ये चारित्री के लक्षण हैं।
[ ३५४-३५५ ] असातोदयशून्योऽन्धः कान्तारपतितो यथा । गादिपरिहारेण सम्यक् तत्राभिगच्छति ॥ तथाऽयं भवकान्तारे पापादिपरिहारतः ।
श्रुतचक्षुविहोनोऽपि सत्सातोदयसंयुतः
गहन वन में भटका हुआ अन्धा पुरुष, जिसके असात-वेदनीय-दुःखप्रद कर्मों का उदय नहीं है, खड्डे आदि से बचता हुआ सही सलामत अपने मार्ग पर चलता जाता है, उसी प्रकार संसाररूपी भयावह वन में भटकता हुआ वह पुरुष, जिसके सात-वेदनीय-सुखप्रद कर्मों का उदय है, अपने को पापों से बचाता हुआ शास्त्र-ज्ञानरूपी नेत्र से रहित होते हुए भी धर्म-पथ पर गतिशील रहता है।
१. अनुयोगद्वार सूत्र १३८-१४० तथा प्रवचन सारोद्धार द्वार १५८ में पल्योपम
का विस्तार से विवेचन है। २. स्थानांग सूत्र २.४.६६
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