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सर्वज्ञवाद | २०६ प्रकृति और पुरुष का सर्वथा वियोग हो जाता है। प्रकृति का जब पुरुष से पार्थक्य हो जाता है तो तत्प्रसूत सभी तत्त्व सहज ही पुरुष से पृथक् हो जाते हैं।
जानना आत्मा का स्वभाव है अतः मोक्ष होने पर भी उसे ज्ञान रहता है, ऐसा नहीं माना जा सकता। हम (सांख्यवादी) चैतन्य-चेतना ही ज्ञान है, ऐसा नहीं मानते । चेतना और ज्ञान दोनों भिन्न हैं। चेतना पुरुष का धर्म है तथा ज्ञान बुद्धि का धर्म है । बुद्धि प्रकृति से उत्पन्न है।
। ४४८ ] बुद्ध यध्यवसितस्यैवं कथमर्थस्य चेतनम् । . गीयते तत्र नन्वेतत् स्वयमेव निभाल्यताम् ॥
यदि ज्ञान और चेतना भिन्न-भिन्न हैं, तब बुद्धि अपने द्वारा गृहीत जो विषय पुरुष तक पहुंचाती है, उसके सम्बन्ध में आप कैसे कह पायेंगे कि पुरुष चेतना द्वारा ग्रहण कर उसे जानता है। यों कहना संगत नहीं होता । इस पर स्वयं ही विचार करें।
[ ४४६-४५० ] पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमवेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधि स्फटिकं यथा ॥ विभक्त दृषपरिणतौ बुद्धौ भोगोऽस्य कथ्यते ।
प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छ यथा चन्द्रमसोऽम्भसि ॥
प्रतिवादी सांख्यों की यह दलील हो सकती है-पुरुष अविकृतविकाररहित है । जैसे स्फटिक पत्थर का अपना कोई विशेष रंग नहीं होता, जिस रंग की वस्तु उसके समीप आती है, उसकी परछाई द्वारा वह उसी रंग में परिणत दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार अचेतन मन पुरुष में प्रतिबिम्बित होता है । पुरुष में जो विकार दृष्टिगोचर होता है, वह वास्तविक नहीं है, मन की सन्निधि के कारण है।
स्वच्छ जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो चन्द्रमा जल में समाया हो। उसी प्रकार बुद्धि द्वारा गृहीत विषय
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