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२१० | योगबिन्दु
पुरुष मैं प्रतिबिम्बित होता है तो बाह्य दृष्टि से ऐसा लगता है, वह मानो पुरुष का ही हो ।
[ ४५१ ]
तथानामभावे तदुपधेस्तथा । नान्यथाऽसौ स्यादन्धाश्मन इव स्फुटम् ॥
ग्रन्थकार के अनुसार इसका समाधान यों है - उक्त स्थिति तभी घटित होती है, जब स्फटिक तथा तत्समीपवर्ती किसी रंगीन वस्तु का अपने स्वभावानुरूप परिणत होने का गुण है । यदि ऐसा नहीं हो, स्फटिक के स्थान पर कोई धुंधला, मटमैला पत्थर हो तो यह सम्भव नहीं होता। वैसे ही पुरुष का उस रूप में परिणत होने का स्वभाव है, तभी वैसा होता है, अन्यथा नहीं ।
स्फटिकस्य
विकारो
[ ४५२ ]
तथा नामैव सिद्ध व चैतन्यविक्रियाऽप्येवमस्तु ज्ञानं च
साऽऽत्मनः ।
उपर्युक्त उदाहरण से सिद्ध होता है कि आत्मा में यथार्थतः विक्रिया - परिणति या परिणमन भी होता है । इसी प्रकार चेतना में भी परिणमन होता है, जो आत्मा की ज्ञानरूपात्मक अवस्था है । [ ४५३ ]
विक्रियाऽप्यस्य तत्त्वतः ।
निमित्ताभावतो नो चेन्निमित्तमखिलं जगत् । नान्तःकरणमिति चेत् क्षोणदोषस्य तेन किम् ॥
मोक्ष प्राप्त हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता क्योंकि वहाँ निमित्त का अभाव होता है । ऐसा जो कहते हो, उसका उत्तर यह है कि समस्त जगत् ही तो निमित्त है, जो मोक्ष प्राप्ति के बाद भी विद्यमान रहता है । यदि कहो कि वहाँ अन्तःकरण' नहीं रहता तो उसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जिसके राग, द्वेष आदि समस्त दोष मिट गये है, उसे अन्तःकरण की कोई आवश्यकता नहीं होती ।
१. बुद्धि, अहंकार तथा मन ।
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