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सर्वज्ञवाद | २०३
चैतन्य आत्मा का स्वरूप है। वह ज्ञान से पृथक् नहीं है। इसलिए सर्वज्ञता मुक्तावस्था से पूर्व तथा पश्चात् दोनों ही स्थितियों में सम्भव है । क्योंकि वह (सर्वज्ञत्व) ज्ञान का विशुद्ध एवं सर्वोत्कृष्ट रूप है, जो आत्मा का स्वभाव है। यह जैन दार्शनिकों का अभिमत है ।
[ ४२६ ] अस्मादतीन्द्रियज्ञप्तिस्ततः सददेशनागमः ।
नान्यथा छिन्नमूलत्वादेतदन्यत्र दर्शितम् ॥ सर्वज्ञता से इन्द्रियातीत पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होता है, जो प्रमाणभूत है । अतः धर्म-देशना तथा आगम-संग्रथन का वह आधार है । यदि ऐसा न माना जाए तो धर्मोपदेश एवं आगम का मूल स्रोत ही उच्छिन्न हो जाए। यह विषय अन्यत्र चचित है।
[ ४३० ] तथा चेहात्मनो ज्ञत्वे संविदस्योपपद्यते । एषां चानुभवात् सिद्धा प्रतिप्राण्येव देहिनाम् ॥
आत्मा को ज्ञानरूप मानने से उसमें संवित्-ज्ञानमयी प्रतीति, चिन्मयता सिद्ध होती है । यह अनुभवसिद्ध है कि प्रत्येक प्राणी को यत् किञ्चित् संवित् प्राप्त है।
[ ४३१ ] अग्नेरुष्णत्वकल्पं तज्ञानमस्य व्यवस्थितम् । प्रतिबन्धकसामर्थ्यान्न स्वकार्ये प्रवर्तते ॥
जैसे अग्नि में उष्णता अभिन्न रूप में रहती है, उसी प्रकार आत्मा में ज्ञान अभिन्न रूप से व्यवस्थित है--विद्यमान है। प्रतिबन्धक-अवरोध या रुकावट करने वाले कारणों के रहने से वह कार्यकारी नहीं होता।
अग्नि का स्वभाव उष्णता है किन्तु अग्नि पर किसी ऐसी वस्तु का आवरण डाल दिया जाए, जो उष्णता को रोके रहे तो उष्णता अपने स्व. भावानुरूप कार्य-प्रवृत्त नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा का ज्ञान जब ज्ञानावर--
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