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२०२ | योगबिन्दु
सर्वज्ञवाद
[ ४२५ ] साक्षादतीन्द्रियानर्थान् दृष्ट्वा . केवलचक्षुषा।
अधिकारवशात् कश्चित् देशनायां प्रवर्तते ॥ केवली (सर्वज्ञ) केवलज्ञान-सर्वज्ञता-रूपी नेत्र से अतीन्द्रियइन्द्रियों द्वारा अगम्य पदार्थों को साक्षात् देखते हुए धर्म-देशना में धर्मोपदेश करने में प्रवृत्त होते हैं, जिसके लिए वे अधिकृत हैं।
[ ४२६ ] प्रकृष्टपुण्यसामर्थ्यात् प्रातिहार्यसमन्वितः।
अवन्ध्यदेशनः श्रीमान् यथाभव्यं नियोगतः ॥
उत्कृष्ट पुण्य प्रभाव के कारण केवली अनेक दिव्य चिन्हों से युक्त होते हैं। अतिशय शोभाशील होते हैं। उनका धर्मोपदेश व्यर्थ नहीं जाता। भव्य प्राणी उससे उपकृत होते हैं।
तीर्थंकरों के निम्नांकित आठ प्रातिहार्य माने जाते हैं
अशोक वृक्ष, देवों द्वारा आकाश से फूलों की वर्षा, दिव्यध्वनिदेवों द्वारा हर्षातिरेकवश आकाश में किये जाते जयनाद, सिंहासन, छत्र, चवर, भामण्डल, दुन्दुभि-भेरी या नगाड़ा।'
[ ४२७ ] केचित् तु योगिनोऽप्येतदित्थं नेच्छन्ति केवलम् ।
अन्ये तु मुक्त्यवस्थायां सहकारिवियोगतः ।।
कतिपय (बौद्ध) योगी इस प्रकार की सर्वज्ञता को असम्भव मानते हैं। दूसरे (सांख्य) योगी यों कहते हैं कि मोक्ष में सर्वज्ञत्व सम्भव नहीं है क्योंकि वहाँ अपेक्षित सहकारी कारण नहीं रहता। .
[ ४२८ ] . चैतन्यमात्मनो रूपं न च तज्ञानतः पथक् । युक्तितो युज्यतेऽन्ये तु ततः केवलमाश्रिताः ॥
१. अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः, दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च ।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्र, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।
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