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२०० | योगबिन्दु योगियों द्वारा असम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है। उसमें समग्र बाह्य वृत्तियाँ रुक जाती है, आत्मा स्वरूप-परिणत हो जाती है ।
सम्प्रज्ञात समाधि में एक ध्येय या आलम्बन रहता है। वह आलम्बन बीज कहा जाता है । अतएव सम्प्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि कहा गया है। असम्प्रज्ञात समाधि में आलम्बन नहीं होता। जैसाकि महर्षि पतञ्जलि ने बताया है, वहाँ सब कुछ निरुद्ध हो जाता है। आलम्बन का अभाव करते-करते वृत्तियों का भी अभाव कर दिया जाता है। यह सर्ववत्ति निरोधात्मक तथा सर्वथा स्वरूपाधिष्ठानात्मक है, निर्बीज समाधि है।'
[ ४२२ ] धर्ममेघोऽमृतात्मा च भवशक्रशिवोदयः ।
सत्वानन्दः परश्चेति योज्योऽत्रैवार्थयोगतः॥
धर्ममेघ, अमृतात्मा, भवशक्र, शिवोदय, सत्त्वानन्द तथा पर-ये नाम समाधि के ही विशेष स्थितिक्रम के सूचक हैं, जो भिन्न-भिन्न सैद्धान्तिकों ने अभिहित किये हैं। अर्थ-संगतिपूर्वक प्रस्तुत विषय के साथ इनका समन्वय करना चाहिए।
धर्म मेघ शब्द का विशेष रूप से पातञ्जल योग सूत्र में प्रयोग हुआ है ! वहाँ कहा गया है
धनी जैसे पूजी लगाकर उसके ब्याज की चिन्ता में लगा रहता है, उसी तरह जो योगी विवेकज्ञान की महिमा में भी अटका नहीं रहता, उससे भी जिसे वैराग्य हो जाता है, विवेकख्याति जिसके निरन्तर समुदित रहती है, उसके धर्म मेघ समाधि सिद्ध होती है ।
योग सूत्र में आगे बताया गया है कि धर्म मेघ समाधि के सधने पर योगी के अविद्या, अस्मिता, राग, द्वष तथा अभिनिवेश ये पाँच क्लेश १. तस्यापि निरोधे सर्व निरोधानिर्बीजः समाधिः ।
-पातञ्जल योगसूत्र १५.१ २. प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेक-ख्यातेधर्ममेवः समाधिः ।
-पातञ्जल योग सूत्र ४.२६
योग
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