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१६८ | योगबिन्दु
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अभिप्राय यह हुआ — योगी की वह स्थिति, जहाँ चित्त में इतनी स्थिरता आ जाती है कि अपने द्वारा गृहीत ग्राह्य ध्येय सम्यक्तया, उत्कृष्टतया ज्ञात रहे, चित्त का एकमात्र वहीं टिकाव हो, वह और कहीं भटके नहीं, सम्प्रज्ञात समाधि है।
महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में सम्प्रज्ञात समाधि की चर्चा करते हुए लिखा है
क्षीण हो गई हों, उत्तम जाति के निर्मल हो, ग्रहीतृ ( अस्मिता ), ग्रहण
जिसकी राजस, तामस वृत्तियाँ स्फटिक मणि के सदृश जो अत्यन्त (इन्द्रिय) तथा (स्थूल, सूक्ष्म) ग्राह्य विषयों में तत्स्थता - एकाग्रता, तदञ्जनता — तन्मयता, तदाकारता निष्पन्न हो गई हो, चित्त की वह स्थिति समापत्ति (या सम्प्रज्ञात समाधि ) है |"
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[ ४२० ]
एवमासाद्य
जन्माजन्मत्वकारणम् श्रेणिमाप्य ततः क्षिप्रं केवलं लभते क्रमात् ॥
चरमं
यों साधनारत पुरुष आयुष्य समाप्त कर पुनः जन्म प्राप्त करता है, जो उसके लिए अन्तिम होता है । वह (अन्तिम जन्म) अजन्म का कारण होता है अर्थात् वहाँ पुनः जन्म में लानेवाले कर्मों का बन्ध नहीं होता । साधक श्रेणि-आरोह करता है— क्षपक श्रेणि स्वीकार करता है और शीघ्र ही केवलज्ञान - सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लेता है ।
श्रेणि-आरोह के सम्बन्ध में ज्ञाप्य है
जैन दर्शन में चवदह गुणस्थानों के रूप में आत्मा का जो विकास क्रम व्याख्यात हुआ है, उन ( गुणस्थानों) में आठवाँ निवृत्तिबादर गुणस्थान है । मोह को ध्वस्त करने हेतु यहाँ साधक को अत्यधिक आत्मबल के साथ जूझना होता है । फलतः इस गुणस्थान में अभूतपूर्व आत्मविशुद्धि निष्पन्न होती है । इसे अपूर्वकरण भी कहा जाता है । इस गुणस्थान से विकास
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१ क्षीणवृत्त रभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतुग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः । - पातञ्जल योगसूत्र १.४१
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