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भावनानुचिन्तन | १६३
है । जिस रोग पर सेवन की जाए, उसे उन्मूलित कर देती है। यदि रोग न हो तो देह के लिए मेरी औषधि रसायन है। वह रक्त, माँस, बल, वीर्य, ओज तथा सौन्दर्य बढ़ाती है ।
यह सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुमा और बोला-मेरे राजकुमार के लिए यही औषधि समीचीन है।
इस दृष्टान्त द्वारा ग्रन्थकार का यह आशय है कि दोष-सेवन न होने पर भी प्रतिक्रमण करना इसलिए लाभजनक है कि उससे ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि आत्म-गुणों की वृद्धि होती है। जीवन का कल्याण होता है।
[ ४०१ ] निषिद्धासेवनादि यद् विषयोऽस्य प्रकीर्तितः ।
तदेतद् भावसंशुद्धः कारणं परमं मतम् ॥
निषिद्ध-जिनका निषेध किया गया है, ऐसे आचरणों का जैसा, जितना आसेवन किया जाता है, उतना साधना में दोष आता है। प्रतिक्रमण उसकी भाव संशुद्धि-भावात्मक संशोधन-सम्मान का परम हेतु है । भावनानुचिन्तन
[ ४०२ ] मैत्री-प्रमोद कारुण्य-माध्यस्थ्यपरिचिन्तनम् ।
सत्त्व-गुणाधिकक्लिश्यमानाप्रज्ञाप्यगोचरम् साधक को चाहिए, वह संसार के सभी प्राणियों के प्रति मैत्री, अधिक गुणसम्पन्न पुरुषों को देख मन में प्रसन्नता, कष्ट-पीड़ित लोगों के प्रति करुणा तथा अज्ञानी जनों के प्रति माध्यस्थ्य-तटस्थता की भावना से अनभावित-अपने दैनन्दिन चिन्तन में अनुप्राणित रहे ।
[ ४०३ ] विवेकिनो विशेषेण भवत्येतद् यथागमम् ।
तथा गम्भीरचित्तस्य सम्यग्मार्गानुसारिणः ।। विवेकशील, गम्भीरचेता तथा सन्मार्गानुगामी पुरुषों के चित्त में ये
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