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देव-वन्दन | १९॥ यदि साधक को ऐसा भान हो, उसकी आत्मा विपरीत-योग-साधना के प्रतिकूल प्रवाह में बह रही है तो जैसे भय, खतरा उत्पन्न हो जाने पर व्यक्ति बचने के लिए सुरक्षित स्थान में चला जाता है, वैसे ही उसे गुरु आदि महान् पुरुषों को शरण में चला जाना चाहिए । इससे भय, खतरा टल जाता है।
[ ३९६ ] सर्वमेवेदमध्यात्म
कुशलाशयभावतः । ' औचित्याद् यत्र नियमाल्लक्षणं यत् पुरोदितम् ॥
उचित रूप में, नियमित रूप में पूर्व वणित लक्षण जहां घटित होते हैं, वह सब, पुण्यात्मक परिणामों के कारण अध्यात्म है ।
देव-वन्दन
[ ३९७ ] देवादिवन्दनं सम्यक् प्रतिक्रमणमेव च । मैन्यादिचिन्तनं चैतत् सत्त्वादिष्वपरे जगुः ॥
देव आदि का भली-भांति वन्दन-पूजन करना, यथाविधि प्रतिक्रमण करना-अपने द्वारा हुई भूलों के लिए प्रायश्चित करना, आत्म-मार्जन करना, मैत्री, करुणा, प्रमोद, माध्यस्य रूप भावनाओं का चिंतन-अनुचिन्तन करना अध्यात्म है। ऐसा कुछ लोगों का कहना है। .
[ ३९८-३९६ ] स्थानकालक्रमोपेतं शब्दार्थानुगतं तथा । अन्यासंमोहजनक
श्रद्धासंवेगसूचकम् ॥ प्रोल्लसद्भावरोमाञ्चं वर्धमानशुभाशयम् । अवनामादिसंशुद्धमिष्टं
देवादिवन्दनम् ॥ उचित आसन, विहित समय, विधिक्रम का ध्यान रखना, स्तवनरूप में उच्चारित होते शब्दों के अर्थ पर गौर करते जाना, पूजारत अन्य व्यक्ति के मन में भ्रम, अव्यवस्था उत्पन्न न करना, श्रद्धा तथा तीव्र उत्साह लिए रहना, भक्तिभाव-प्रसूत हर्ष के कारण रोमांचित होना, पवित्र भावों का
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