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१६० | योगबिन्दु
योग का तात्पर्य शारीरिक, मानसिक, वाचिक प्रवृत्ति है। जनवाद का अर्थ अपने सम्बन्ध में लोगों में प्रचलित बातें, अफवाहें हैं । लिङ्ग का अर्थ शकुन आदि चिन्ह हैं । इनसे अपने औचित्य या योग्यता का निरीक्षणपरीक्षण किया जा सकता है।
[ ३६२ ] एकान्तफलदं ज्ञेयमतो धर्मप्रवर्तनम् ।
अत्यन्तं भावसारत्वात् तत्रैवाप्रतिबन्धतः ॥
अपनी योग्यता का अंकन कर धर्म में प्रवृत्त होना एकान्तरूपेण'निश्चित रूप से फलप्रद है। वैसा करते साधक के मन में अत्यन्त उच्च भाव रहता है । उसको सत्यवृत्ति में कोई प्रतिबन्ध या विघ्न नहीं आता।
[ ३६३ ] तद्भङ्गादिभयोपेतस्तत्सिद्धौ चोत्सुको दृढम् ।
यो धोमानिति सन्न्यायात् स यदौचित्यमोक्षते ॥
जो अपने सत्प्रयत्न में विघ्न, बाधा आदि से भय मानता हुआ जागरूक रहता है, सफल होने का उत्साह लिए रहता है, जो बुद्धिमान है, वह न्याययुक्तिपूर्वक अपनी योग्यता को आँक लेता है।
[ ३६४-३६५ ] आत्मसंप्रेक्षणं चैव ज्ञेयमारब्धकर्मणि । पापकर्मोदयादत्र भयं तदुपशान्तये ॥ विस्रोतोगमने न्याय्यं भयादौ शरणादिवत् । गुर्वाद्याधणं सम्यक् ततः स्याद् दुरितक्ष यः ॥
अतोत में आचरित अशुभः कर्मों के उदय से मन में यह भय हो जाता है कि कहीं कोई विघ्न न आ जाए। इस भय को उपशान्त करने हेतु साधक, जिसने योगानुष्ठान आरम्भ किया हो, आत्मावलोकन करे-यह देखे कि कहीं अपने सदनुष्ठान के यथावत् आचरण में उससे कोई भूल तो नहीं हो रही है।
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