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१४८. | योगबिन्दु
अंकुर ही वे मूल आधार हैं, जिन पर विशाल वृक्ष विकसित हुआ । उसी प्रकार योगियों द्वारा आचरित होता सदनुष्ठान ही आत्मा के उत्तरवर्ती विपुल विकास, विस्तार का प्रमुख बीज प्ररोह रूप प्रमुख आधार है ।
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अन्तविवेक सम्भूतं नाग्रोद्भवलताप्रायं
शान्तोदात्तमविप्लुतम् बहिश्चेष्टाधिमुक्तिकम् ॥
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योगी के अन्तःकरण में विवेक उत्पन्न हो जाता है । उसकी वृत्तियाँ शान्त तथा उच्चभाव युक्त बन जाती हैं। उनकी यह स्थिति कभी विलुप्त नहीं होती । जैसे वृक्ष की जड़ में उगी हुई तथा तने के साथ बढ़ती हुई बेल बाहर अपना फैलाव नहीं करती, अन्य बेलों से सम्बद्ध नहीं होती, उसी प्रकार योगी का चित्त बाहरी चेष्टाओं से विमुक्त हो जाता है, आत्मभाव में लीन रहता है, उसी के सहारे विकास करता जाता है ।
[ २५० ]
इष्यते निर्दाशतमिदं
[ २४६ ]
चैतदप्यत्र
पूर्वमत्रैव
तावत् पूर्ववर्णित त्रिधा शुद्ध अनुष्ठान के अन्तर्गत पहला विषय या लक्ष्य रूप अनुष्ठान भी उपचार से योग का अंग है । इस सम्बन्ध में संक्षेप में पहले चर्चा आ ही चुकी है।
अनबंन्धकस्यैवं
विषयोपाधिसङ्गतम् । लेशतः ॥
यहाँ यह उल्लेख करने का आशय यह है कि जब पहला भी एक अपेक्षा से योग के अन्तर्गत माना जाता है, तब दूसरा तथा तीसरा तो वैसा है ही ।
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[ २५१ ]
सम्यग्नीत्योपपद्यते
तत्तत्तन्त्रोक्तमखिलमवस्थाभेदसंश्रयात्
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भिन्न-भिन्न योगशास्त्रों में अवस्था भेद के आधार पर योग की प्रारम्भिक भूमिका के सन्दर्भ में जो बताया गया है, उस पर यदि न्याय -- युक्तिपूर्वक विचार करें तो अपुनर्बन्धक के साथ समन्वय घटित हो जाता है ।
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