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१७६ | योगबिन्दु
चारित्नी
- कर्मणः
[ ३५२ ] एवं तु वर्तमानोऽयं चारित्री जायते ततः ।
पल्योपमपृथक्त्वेन विनिवृत्तेन कर्मणः
पूर्वोक्त सदनुष्ठान में प्रवृत्त साधक के जब दो से नौ पल्योपम तक के मध्य की कोई एक अवधि-परिमित कर्म विनिवृत्त हो जाते हैं-उनसे वह छुटकारा पा लेता है, तब चारित्री होता है।
यहाँ प्रयुक्त ‘पल्योपम' शब्द एक विशेष, अति दीर्घकाल का द्योतक है। जैन वाङमय में इसका बहुलता से प्रयोग हुआ है।
पल्य या पल्ल का अर्थ कुआ या अनाज का बहुत बड़ा कोठा है। उसके आधार पर या उसकी उपमा से काल-गणना की जाने के कारण यह कालावधि 'पल्योपम' कही जाती है ।
पल्योपम के तीन भेद हैं-१. उद्धार-पल्योपम, २. अद्धा-पल्योपम, ३. क्षेत्र-पल्योपम।
उद्धार-पल्योपम-कल्पना करें, एक ऐसा अनाज का बड़ा कोठा या कुआ हो, जो एक योजन (चार कोस) लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा हो । एक दिन से सात दिन की आयु वाले नवजात यौगलिक शिशु के बालो के अत्यन्त छोटे टुकड़े किए जाएं, उनसे लूंस-ठूस कर उस कोठे या कुए को अच्छी तरह दबा-दबा कर भरा जाए । भराव इतना सघन हो कि अग्नि उन्हें जला न सके, चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाय तो एक भी कण इधर से उधर न हो सके, गंगा का प्रवाह बह जाय तो उन पर कुछ असर न हो सके। यों भरे हुए कुए में से एकएक समय में एक-एक बाल-खण्ड निकाला जाय । यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआ खाली हो, उस काल-परिमाण को उद्धार-पल्योपम कहा जाता है। उद्धार का अर्थ निकालना है। बालों के उद्धार या निकाले जाने के आधार पर इसकी संज्ञा उद्धार पल्योपम है। यह संख्यात-समयपरिमाण माना जाता है।
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