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सम्यक् दृष्टि और बोधिसत्त्व | १५५
[ २७२ ] परार्थरसिको धीमान् मार्गगामी महाशयः । गुणरागी तथेत्यादि सर्व तुल्यं द्वयोरपि
परोपकार में रस- हार्दिक अभिरुचि, प्रवृत्ति में बुद्धिमत्ता-विवेकशीलता, धर्म-मार्ग का अनुसरण, भावों में उदात्तता, उदारता तथा गुणों में अनुराग-ये सब बोधिसत्त्व तथा सम्यकदृष्टि-दोनों में समान रूप से प्राप्त होते हैं।
[ २७३ ] यत् सम्यग् दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः ।
सत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैषोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥
सम्यक् दर्शन तथा बोधि वास्तव में एक ही वस्तु है। बोधिसत्त्व वह पुरुष होता है, जो बोधियुक्त हो, कल्याण-पथ पर सम्यक् गतिशील हो। सम्यक्दृष्टि का भी इसी प्रकार का शाब्दिक अर्थ है।
[ २७४ ] वरबोधि समेतो वा तीर्थकृद् यो भविष्यति । तथा भव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः ॥
अथवा सत्पुरुषों ने प्रबुद्ध जनों ने यों भी माना है जो उत्तम बोधि से युक्त होता है, भव्यता के कारण अपनी मोक्षोद्दिष्ट यात्रा में आगे चलकर तीर्थ कर पद प्राप्त करता है, वह बोधिसत्त्व है।
[ २७५ ] सांसिद्धिकमिदं ज्ञयं सम्यक् चित्रं च देहिनाम् ।
तथा कालादिभेदेन बीजसिद्ध यादिभावतः ॥
भव्यात्माओं का भव्यत्व-भाव अनादिकाल से सम्यक् सिद्ध है। अनुकूल समय, स्वभाव, नियति, कर्म, प्रयत्न आदि कारण-समवाय के मिलने पर वह बीज-सिद्धि के रूप में प्रकट होता है। जैसे समय पाकर बीज वृक्ष बन जाता है, उसी प्रकार वह विकास करता जाता है, उत्तरोत्तर उन्नत होते-बढ़ते गुणस्थानों द्वारा ऊँचा उठता जाता है ।
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