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'१६६ | योमबिन्दु
अन्धे को रूप दिखलाना तथा उस सम्बन्ध में उससे निर्णय लेना अनुचित है । नेत्रहीन, जो किसी वस्तु को देख ही नहीं सकता, उसके विषय में कैसे निर्णय कर सकता है। उसी प्रकार अतीन्द्रिय-जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहीत नहीं की जा सकती, वस्तु के सम्बन्ध में अल्पज्ञ पुरुष यथार्थ निर्णय नहीं कर सकता।
[ ३१६ ] हस्तस्पर्शसमं शास्त्रं तत एव कथञ्चन ।
अत्र तन्निश्चयोऽपि स्यात् तथा चन्द्रोपरागवत् ॥
अन्धा मनुष्य जैसे हाथ से छूकर किसी वस्तु के सम्बन्ध में अनुमान करता है, उसी प्रकार शास्त्र के सहारे व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि पदार्थों का कुछ निश्चय कर पाता है। . ग्रहण के समय चन्द्रमा राहु द्वारा किस सीमा तक ग्रस्त हुआ है, यह जानने हेतु कुछ-कुछ काले किये हुए काच द्वारा उसे देखा जाता है, उसी प्रकार शास्त्र द्वारा इन्द्रियातीत पदार्थ के सम्बन्ध में जानने का प्रयास लगभग ऐसा ही है।
[ ३१७ ] ग्रहं सर्वत्र संत्यज्य तद्गम्भीरेण चेतसा । - शास्त्रगर्भः समालोच्यो ग्राह्यश्चेष्टार्थसङ्गतः ॥
साधक को चाहिए कि वह देव, गुरु, धर्म, आत्मा, परमात्मा आदि. के सम्बन्ध में दुराग्रह का सर्वथा परित्याग करे, शास्त्रों में जो कहा गया है, उस पर गम्भीर चित्त से विचार करे तथा कार्यकारिता, लक्षण, स्वरूप की दृष्टि से जो समीचीन प्रतीत हो उसे ग्रहण करे। .
भाग्य तथा पुरुषार्थ
[ ३१८ ] दैवं पुरुषकारश्च तुल्यावेतदपि स्फुटम् ।
एवं व्यवस्थिते तत्त्वे युज्यते न्यायतः परम् भाग्य और पुरुषकार-पुरुषार्थ एक समान ही हैं, यह भी तत्त्व को
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