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भाग्य तथा पुरुषार्थ | १६७ व्यवस्थित मानने पर-वस्तुओं को उनके विशेष स्वभाव के साथ स्वीकार करने पर ही युक्तियुक्त सिद्ध होता है।
[३१९ ] दैवं नामेह तस्वेन कर्मैव हि शुभाशुभम् ।
तथा पुरुषकारश्च स्वव्यापारो हि सिद्धिदः
अतीत में किये गये शुभ या अशुभ कर्म ही तत्त्वतः भाग्य है । वे (कर्म) यदि शुभ हों तो सौभाग्य के रूप में और यदि अशुभ हो तो दुर्भाग्य के रूप में फलित होते हैं। पुरुषार्थ वर्तमान कर्म-व्यापार-क्रिया-प्रक्रिया है, जो यथावत् रूप में किये जाने पर सफलता देता है।
[ ३२० ] स्वरूपं
निश्चयेनैतदनयोस्तत्त्ववेविनः । ब्रुवते व्यवहारेण चित्रमन्योन्यसंश्रयम् ॥
तत्त्ववेत्ता भाग्य और पुरुषार्थ-दोनों का स्वरूप निश्चय-दृष्टि से उपर्युक्त रूप में बतलाते हैं। भाग्य तथा पुरुषार्थ विचित्र रूप में अनेक प्रकार से एक दूसरों पर आश्रित हैं, ऐसा वे (तत्त्ववेत्ता) व्यवहार-दष्टि से प्रतिपादित करते हैं।
[ ३२१ ] न भवस्थस्य यत् कर्म विना व्यापारसंभवः । न च व्यापारशून्यरय फलं स्यात् कर्मणोऽपि हि ॥
जो व्यक्ति संसार में है, पूर्व संचित कर्म के बिना उसका जीवनव्यापार नहीं चलता। जब तक वह कर्म-व्यापार में संलग्न नहीं होता-कर्मप्रवृत्त नहीं होता, तब तक संचित कर्म का फल प्रकट नहीं होता।
[ ३२२ ] व्यापारमात्रात् फलदं निष्फलं महतोऽपि च ।
अतो यत् कर्म तद् दैवं चित्रं ज्ञ यं हिताहितम् ॥
कभी ऐसा होता है, थोड़ा सा प्रयत्न करते ही सफलता मिल जाती है और कभी बहुत प्रयत्न करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं होती। इसका
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