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कालातीत का मन्तव्य | १६३
अस्यापि योऽपरो भेदश्चित्रोपाधिस्तथा तथा । गोयते ऽ तोतहेतुभ्यो धीमतां सोऽप्यपार्थकः ततोऽस्थानप्रयासोऽयं यत् तद्भेदनिरूपणम् ।
सामान्यमनुमानस्य यतश्च विषयो मतः ।
माध्यस्थ्य-भाव का आलम्बन करते हुए, उद्दिष्ट विषय का यथार्थ अभिप्राय ध्यान में रखते हुए तत्त्वनिरूपण करना चाहिए। आचार्य कालातीत, ने भी ऐसा ही कहा है
मुक्तवादी-आत्मा को सदा, चिरन्तन मुक्त मानने वाले, अविद्यावादी -आत्मा को अविद्यावच्छिन्न मानने वाले अन्य तत्त्ववादियों द्वारा स्वीकृत मार्ग भी यही है। केवल अभिधान-अभिव्यक्ति आदि का भेद बहाँ है। तत्त्व-व्यवस्था में भेद नहीं है।
जो ऐश्वर्य-ईश्वरता-असाधारण शक्तिमत्ता के वैभव से युक्त माना जाता है, वह मुक्त, बुद्ध, अर्हन् आदि जिस किसी नाम से संबोधित किया जाए, ईश्वर है।
क्या परमात्मा या ईश्वर अनादिकाल से शुद्ध है, क्या ऐसा नहीं है ?-इत्यादि रूप में भेद-विकल्प-तर्क-वितर्क या वाद-विवाद, जो भिन्नभिन्न मतवादियों द्वारा किया जाता है, वह वस्तुतः निरर्थक है।
___ परमात्मा के सम्बन्ध में हमें अपरिज्ञान है-व्यापक ज्ञान नहीं है। उस सन्दर्भ में जो युक्तियाँ दी जाती हैं, वे भ्रान्तिजनक हैं, परस्पर-विरुद्ध हैं । मत-भिन्नता के बावजूद फल में, लक्ष्य में सबके अभिन्नता है। फिर विवाद की कैसी सार्थकता ?
अविद्या, क्लेश, कर्म आदि को संसार का कारण माना गया है। वह वास्तव में प्रकृति ही है । केवल नामान्तर का भेद है।
प्रकृति को केन्द्रबिन्दु में प्रतिष्ठित कर किये गये इस विवेचन से प्रतीत होता है, कालातीत सांख्ययोगाचार्य थे।
भिन्न-भिन्न उपाधि-अभिधान आदि द्वारा उसके जो अन्यान्य भेद किये जाते हैं, उन्हें मानने का कोई यथार्थ प्रयोजन या हेतु नहीं है। बुद्धिमानों के लिए वे निरर्थक हैं ।
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