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१५८ | योगबिन्दु के रुक जाने से आत्मा को घोर दुःखमय दीर्घ संसार-जन्म-मरण के दीर्घकालीन चक्र में नहीं आना पड़ता । अन्ततः मोक्ष प्राप्त होता है।
[ २८३ ] जात्यन्धस्य यथा पुसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये । सद्दर्शनं तथैवास्य ग्रन्थिभेदेऽपरे जगुः ॥
जन्मान्ध पुरुष को यदि पुण्योदय से नेत्र प्राप्त हो जाएं तो वह वस्तुओं को यथावत् रूप में देखने लगता है। उसी प्रकार ग्रन्थि-भेद हो जाने पर मनुष्य तत्त्वतः वस्तु-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। उसकी दृष्टि तत्वोन्मुख, सत्त्योन्मुख हो जाती है ।
[ २८४-२८६ ] अनेन भवनैगुण्यं सम्यग् वीक्ष्य महाशया । तथा भव्यत्वयोगेन विचित्रं चिन्तयत्यसौ ॥ "मोहान्धकारगहने संसारे दुःखिताबत । सत्त्वाः परिभ्रमन्त्युच्चैः सत्यस्मिन् धर्मतेजसि ॥ अहमेतानतः कृच्छाद् यथायोग कथञ्चन । अनेनोत्तारयामोति वरबोधिसमन्वितः ॥
उच्च विचार-सम्पन्न वैसा पुरुष संसार की निःसारता का सम्यक् अवेक्षण करता हुआ भव्यत्वमयो-सत्त्वोन्मुखी-मोक्षानुगामिनी अन्तर्व ति के कारण विविध रूप में सच्चिन्तन करता है---
मोह के अन्धकार से परिव्याप्त संसार में धर्म को दीप्तिमयी ज्योति के होते हुए भी प्राणी दुःखित बने भटक रहे हैं, कितना आश्चर्य है ।
__ मुझे उतम बोधि प्राप्त है। मैं उस द्वारा जहाँ तक संभव हो, किसी तरह उन्हें इस घोर दुःख के पार लगाऊं-दुःखमुक्त करूं।
[ २८७ ] करुणादि गुणोपेतः परार्थव्यसनी सदा । तथैव चेष्टते धीमान् वर्धमानमहोदयः
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