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तीन करण | १५३
[ २६६ ] भिन्नग्रन्थेस्तृतीयं तु सम्यग्दृष्टेरतो हि न ।
पतितस्याप्यते बन्धो अन्थिमुल्लंघ्य देशितः ॥
जिसके ग्रन्थि-भेद हो चुकता है, उसके तृतीय करण होता है । उसे सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है । तत्पश्चात् वह अपेक्षित नहीं रहता।
__ सम्यकदृष्टि यदि वापस नीचे भी गिरता है तो उसके वैसा तीव्र कर्मबन्ध नहीं होता, जैसा उसके होता है, जो भिन्न-ग्रन्थि नहीं है।
[ २६७ ] एवं सामान्यतो ज्ञयः परिणामोऽस्य शोभनः ।
मिथ्यादृष्टेरपि सतो महाबन्धविशेषतः ॥
मिथ्यादृष्टि होते हुए भी सामान्यतः उसके आत्मपरिणाम अच्छे होते हैं । इसलिए उसके जो कर्म-बन्ध होता है, वह बहुत गाढ़ नहीं होता।
मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के होते हैं। एक वह मिथ्यादृष्टि है, जिसे सम्यक् दृष्टि कभी प्राप्त नहीं हुई। दूसरा वह मिथ्यादृष्टि है, जो एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर चुकता है पर वापस नीचे आ जाता है। इन दोनों के कर्म-बन्ध में अन्तर होता है। पहला मिथ्यादृष्टि (जिसने सम्यक्त्व का कभी संस्पर्श नहीं किया) तीव्र एवं प्रगाढ़ कर्म-बन्ध करता है। सम्यकदृष्टि से पतित मिथ्यादृष्टि उतना तीव्र तथा प्रगाढ़ कर्म-बन्ध नहीं करता। इसका कारण यह है कि जो जीवन में एक बार सम्यक्त्व पा जाता है, उसकी संस्कार-धारा में हलकी सी ही सही, एक ऐसी सत्त्वोन्मुखी रेखा खचित हो जाती हैं, जो उसके आत्म-परिणामों को उतना मलीमस नहीं होने देती, जितने मिथ्यादृष्टि के होते हैं ।
[ २६८ ] सागरोपमकोटीनां कोट्यो मोहस्य सप्ततिः ।
अभिन्नग्रन्थिबन्धो यन्न त्वेकोऽपोतरस्य तु जिसके ग्रन्थि-भेद नहीं होता, उसके सत्तर कोडाकोड़ सागर की स्थिति वाले मोहनीय कर्म का बन्ध होता है । जिसके प्रन्थि-भेद हो चुका
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