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१५२ | योगबिन्दु सीमा तक होती है, जहाँ तक उस द्वारा शक्य हो । शक्यता के बाहर प्रवृत्ति नहीं सधती।
अपनी शक्ति या योग्यता का ध्यान रखे बिना जो देव-पूजन आदि धर्म-कृत्यों में अंधाधुंध लगा रहता है, वहाँ वे कार्य केवल प्रवृत्ति मात्रनितान्त यान्त्रिक होते हैं। उनकी वास्तविकता घटित . नहीं होती। जो अपनी शक्ति के अनुरूप कार्य करता है, वे (कार्य) सही रूप में सधते हैं तथा उनका सत्फल प्राप्त होता है। तीन करण
[ २६३ ] एवं भूतोऽयमाख्यातः सम्यग्दृष्टिजिनोत्तमैः । यथाप्रवृत्तिकरणव्यतिक्रान्तो महाशयः ॥
जो यथाप्रवृत्तिकरण को पार कर चुका है, उत्तम परिणामयुक्त है, ऐसा पुरुष सर्वज्ञों द्वारा सम्यक्दृष्टि कहा गया है ।
[ २६४ ] करणं परिणामोऽत्र सत्त्वानां तत् पुनस्त्रिया ।
यथाप्रवृत्तमाख्यातमपूर्वमनिवृत्ति च
प्राणियों का आत्मपरिणाम या भावविशेष करण कहा जाता है। वह तीन प्रकार का है-यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण । यथाप्रवृत्तकरण का ऊपर उल्लेख हुआ ही है ।
। २६५ ] एतत् त्रिधाऽपि भव्यानामन्येषामाद्यमेव हि । ग्रन्थिं यावत् त्विदं तं तु समतिकामतोऽपरम् ॥
ये तीनों प्रकार के करण भव्यात्माओं के सधते हैं। अभव्यात्माओं के केवल पहला-यथाप्रवृत्तकरण ही होता है । वे ग्रन्थि-भेद के निकट आकर वापस गिर जाते हैं । भव्यात्माओं के यह (यथाप्रवृत्तकरण) ग्रन्थिभेद तक रहता है। ग्रन्थि-भेद की स्थिति प्राप्त कर, इसे लांघकर वे अपूर्वकरण में पहुंच जाते हैं।
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