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१४६ | योगबिन्दु का-आगम-निरूपित तत्त्व-दर्शन का उल्लंघन कर वह योग-मार्ग में प्रवत्त होता है, यह उसकी अज्ञता ही तो है।
[ २४१ ] न. सद्योगभव्यस्य वृत्तिरेवंविधाऽपि हि । .. न जात्वजात्यधर्मान् यज्जात्यः सन् भजते शिखी ॥
उत्तम योग में प्रवृत्त भव्य पुरुष को ऐसी क्रिया-विधि में प्रवृत्ति नहीं होती। जैसे उत्तम जाति में उत्पन्न मयूर अपना जाति-धर्म छोड़कर अन्य में कभी प्रवृत्त नहीं होता । अपने स्वरूप, स्वभाव तथा स्तर के अनुरूप उसकी प्रवृत्ति होती है।
[ २४२ ] एतस्य गर्भयोगेऽपि मातृ णां श्रूयते परः ।
औचित्यारम्भनिष्पत्तो जनश्लाघो महोदयः
शास्त्रों में प्रतिपादित है कि उस प्रकार का उत्तम जीव जब माता के गर्भ में आता है तो माता की प्रवृत्ति एवं कार्य-विधि में विशेष औचित्य तथा उच्च भाव आ जाता है, जो सब द्वारा प्रशंसित होता है ।
[ २४३-२४४] जात्यकाञ्चनतुल्यास्तत्प्रतिपच्चन्द्रसन्निभाः सदोजोरत्नतुल्याश्च लोकाभ्युदयहेतवः औचित्यारम्भिणोऽक्षद्राः प्रक्षावन्तः शुभाशयाः । अवन्ध्यचेष्टाः कालज्ञा योगधर्माधिकारिणः ॥
योग-धर्म के अधिकारी पुरुष उत्तम जाति के स्वर्ण के समान अपने गणों से देदीप्यमान, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के चन्द्र के सदश उत्तरोत्तर वृद्धिशील, श्रेष्ठ आभायुक्त रत्न के तुल्य उतम ओज से विभाजित, लोककल्याणकारी, समुचित कार्यों में संलग्न, उदात्त, विचारशील, पवित्र भावयुक्त सफल प्रयत्नकारी तथा अवसरज्ञ होते हैं।
[ २४५ ] यश्चात्र शिखि दृष्टान्तः शास्त्रे प्रोक्तो महात्मभिः । स तदण्डरसादीनां सच्छक्त्यादिप्रसाधनः ॥
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