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१३६ | योगबिन्दु
जिसकी अज्ञान-जनित मोहरागात्मक ग्रन्थि भिन्न हो जाती है, खुल जाती है, ऐसे सत्पुरुष का चित्त मोक्ष में रहता है और देह संसार में। उसके जीवन की समग्र क्रिया-प्रक्रिया योग में समाविष्ट है।
[ २०४ ] नार्या यथान्यसक्तायास्तत्र भावे सदा स्थिते । तद्योगः पापबन्धश्च तथा मोक्षेऽस्य दृश्यताम् ॥
जो स्त्री पर-पुरुष में आसक्त होती है, सदा उसी के चिन्तन में अनुरक्त रहती है, वह प्रसंगवश कभी पति की सेवा करती हो या अपने परपुरुष की सेवा करती हो, उसके सभी कार्यों में पाप-बन्ध होता है क्योंकि उसका जीवन पापमय है।
__ इस उदाहरण से भिन्नग्रन्थि की स्थिति समझनी चाहिए। भिन्नग्रन्थि का जीवन-रस अध्यात्मय होता है अतः वह जो भी क्रिया करता है, बाहरी रूप पर न जाएं, मूलतः वह अध्यात्म-विमुख नहीं होती। अत एव भिन्नग्रन्थि की सभी क्रियाएँ योग-व्याप्त कही गई हैं। इसे हृदयंगम करना चाहिए।
[ २०५ ] न चेह ग्रन्थिभेदेन पश्यतो भावमुत्तमम् ।
इतरेणाकुलस्यापि तत्र चित्तं न जायते ॥
ग्रन्थि-भेद हो जाने पर साधक की दृष्टि उत्तम भावमय-मोक्षानुगामी मोड़ ले लेती है । अपने दैनन्दिन कार्यों में लगे रहने पर भी उसका चित्त मोक्ष पर टिका रहता है । वह कर्तव्यवश लौकिक कार्य करती है पर उनमें बह रस नहीं लेता।
[ २०६ ] चार चैतद् यतो ह्यस्य तथोहः संप्रवर्तते ।
एतद्वियोगविषय: शुद्धानुष्ठानभाक् स यत् भिन्नग्रन्थि पुरुष अपनी दृष्टि मोक्ष पर स्थिर किये रहता है, यह बहुत सुन्दर है । एक ओर उसका संसार के बन्धन से आत्मा के छूटने के सम्बन्ध में चिन्तन चलता है तथा दूसरी ओर शुद्ध धर्मानुष्ठान में वह तत्पर रहता है।
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