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कुलयोगी आदि का स्वरूप | ७७
है । जो मनुष्य गरिष्ठ, पौष्टिक भोजन पचाने में सक्षम नहीं है, जिसका आमाशय कमजोर है, वह यदि वैसा भोजन कर लेता है तो उसे अजीर्ण हो जाता है । यही बात ज्ञान के साथ है, जो विशिष्ट ज्ञान को जीर्ण नहीं कर सकते, पचा नहीं सकते, उससे उनका लाभान्वित होना तो दूर, उलटा नुकसान होता है।
यह आशंकित है-वे ग्रन्थ पढ़कर ज्ञान का अभिमान करने लगते हैं क्योंकि उनके जीवन में वह उतरता नहीं। वे केवल पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए चर्चा और भाषण करते हैं, ज्ञानी पुरुषों की अवहेलना करते हैं, अज्ञ जनों को ठगते हैं । जिस ज्ञान द्वारा अपना तथा औरों का श्रेयस् सधना चाहिए, उसका वे अश्रेयस्कर रूप में उपयोग करते हैं । अतएव आचार्य ने बहुत आदर के साथ कहा कि वैसे अयोग्य जनों को ग्रन्थ देना उपयुक्त नहीं है।
अवज्ञह कृताऽल्पादि यदनाय जायते ।
अतस्तत्परिहारार्थं न पुनर्भावदोषत: ॥
इस महान योग-ग्रन्थ के प्रति की गई जरा भी अवज्ञा-अवहेलना अनर्थकर है।
आचार्य कहते हैं-अवज्ञा-परिहारहेतु-कोई इस ग्रन्थ के प्रति अवज्ञापूर्ण आचरण न करे, इस भाव से उनका यह कथन है, भावदोषमन की क्षुद्रता से नहीं।
___ अत्यन्त महान् योग-विषय ग्रथित होने के कारण यह ग्रन्थ वस्तुतः महान् है । ऐसे महान्, पवित्र योगशास्त्र की जाने-अनजाने अवज्ञा करना अवज्ञाकारी के लिए वास्तव में अति हानिकर है। महान् पुरुष का, महत्. वस्तु का जरा भी अनादर, अभक्ति, आशातना, अविनय घोर कर्मबन्ध का कारण होता है । अतः कोई वैसा कभी न करे ।
[ २२८ ] योग्येभ्यस्तु प्रयत्नेन देयोऽयं विधिनान्वितैः । मात्सर्यविरहेणोच्चः श्रेयोविघ्नप्रशान्तये ॥ जो श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ईहा, अपोह, तत्त्वाभिनिवेश
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