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१८ | योगबिन्दु
[ ६५ ] अतोऽत्रैव महान् यत्नस्तत्तत्तत्त्वप्रसिद्धये ।
प्रेक्षावता सदा कार्यों वादग्रन्यास्त्वकारणम् ॥ विवेकशील पुरुष को तत्त्व-प्रसिद्धि-तत्त्वों को प्रतीति, अभिव्यक्ति हेतु योग में महान्–विपुल प्रयत्न करना चाहिए-योग-साधना में विशेष रूप से समुद्यत रहना चाहिए।
[६६-६७ ] उक्तं च योगमार्गज्ञ स्तपोनि—तकल्मषैः । भावियोगिहितायोच्चैर्मोहदीपसमं वचः ॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तो निश्चितांस्तथा । तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति तिलपोलकवद् गतौ ॥
तपश्चरण द्वारा जिन्होंने अपना मनोमल मिटा डाला, ऐसे योगवेत्ता सत्पुरुषों का भावी योगियों-योग-साधना में प्रविष्ट होने के इच्छुक पुरुषों के हित के लिए मोह के अंधेरे को मिटाने हेतु दीपक के सदृश वचन है-"जो निश्चित रीति से -नैयायिक या तार्किक शैली से पक्ष-विपक्ष में अपनी-अपनी दलीलें उपस्थित करते हुए वाद-प्रतिवाद-खण्डन-मण्डन में लगे रहते हैं, वे तत्त्वान्त-तत्त्व-निर्णय तक नहीं पहुंच पाते । उनकी स्थिति कोल्हू के बैल जैसी होती है, जो कोल्हू के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है पर कभी किसी निश्चित छोर पर नहीं पहुंचता।" अध्यात्म
[ ६८ ] अध्यात्ममत्र परम उपायः परिकीर्तितः । गतौ सन्मार्गगमनं यथैव ह्यप्रमादिनः ॥
पदार्थों के सत्य स्वरूप के अवबोध तथा साधना की यात्रा में प्रमादरहित होकर चलते रहने में अध्यात्म परम उपाय है-महान् अमोघ साधन है।
[ ६६ ] मुक्त्वाऽतो वादसंघट्टमध्यात्ममनुचिन्त्यताम् । नाविधूते तमःस्कन्धे ज्ञये ज्ञानं प्रवर्तते ॥
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