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गोपेन्द्र का अभिमत | १०७.
अनिवृत्ताधिकारायां
सर्वथैव हि ।
न पु' सस्तत्वमार्गेऽस्मिजिज्ञासाऽपि प्रवर्तते 11 क्षेत्ररोगाभिभूतस्य यथाऽत्यन्तं विपर्यय: विज्ञेयस्तदावर्त नियोगतः
तद्वदेवास्य
जिज्ञासायामपि त्र कश्चित् सर्गो नाक्षीणपाप एकान्तादाप्नोति कुशलां
प्रकृतौ
निवर्तते ।
धियम् ॥
विशेषतः ।
ततस्तदात्वे कल्याणमायत्यां तु
मन्त्रापि सदा चारु सर्वावस्थाहितं मतम् 11
जिन्होंने योग- मार्ग में श्रम किया है-उच्चयोगाभ्यास किया है, उन इतर परंपराओं के योगवेत्ताओं ने वचन-भेद से इसी बात का निरूपण किया है - इसी तथ्य की पुष्टि की है । उदाहरणार्थ आचार्य गोपेन्द्र ने कहा है—
जब तक प्रकृति अनिवृत्ताधिकारा रहती है - पुरुष पर छाया हुआ उसका अधिकार सिमट नहीं जाता, तत्त्व-ज्ञान द्वारा पुरुष प्रकृति के जंजाल से पृथक हो जाने की स्थिति लाने में तत्पर नहीं होता, तब तक पुरुष (आत्मा) की तत्त्व-मार्ग - योग- मार्ग में जिज्ञासा ही नहीं होती ।
जैसे किसी क्षेत्र - स्थान विशेष में व्यक्ति को कोई रोग होजाए, तो वह भ्रमवश वहाँ से सम्बद्ध हवा, पानी आदि पदार्थों के प्रति एक भ्रान्त धारणा बना लेता है अर्थात् वह मान बैठता है, उन्हीं ( हवा, पानी आदि) की प्रतिकूलता से उसे रोग हुआ है, वैसे ही प्रकृति-अधिकृत पुरुष को अपने अज्ञानरूप दोष के कारण यथार्थ विपरीत प्रतिभासित होता है ।
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अधिक क्या, योग की जिज्ञासा तक प्राप्त करने की स्थिति में आने तु प्रकृति- अधिकृत पुरुष को दीर्घ काल में से गुजरना पड़ता है । जब तक पाप - शुद्धात्मशक्ति के निरोधक राजस, तामस प्राकृत भाव — कल्मष अधिकांशतः क्षीण नहीं हो जाते, पुण्यमयी बुद्धि प्राप्त नहीं होती ।
सदविवेकपूर्ण बुद्धि प्राप्त होने पर पुरुष (आत्मा) का कल्याण होता
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