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पूर्व सेवा [ १११ [ ११६-११७ ] पुष्पश्च बलिना चैव वस्त्र: स्तोत्रश्च शोभनः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ॥ अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत् सर्वे देवा महात्मनाम् ॥
पुष्प, नैवेद्य, वस्त्र तथा सुन्दर स्तोत्रों द्वारा सभी देवों का, उनमें परस्पर भेद न करते हुए सामान्यतः अथवा अधिमुक्तिवश-आस्था व विश्वास के साथ पवित्रता एवं श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिए। उत्तम गृहस्थों के लिए सभी देव माननीय हैं।
यहाँ सभी देवों में भेद न करने की जो बात कही गई है, वह साधनोद्यत पुरुष को प्रारम्भिक विकासापेक्ष भूमिका से सम्बद्ध है, जहाँ उसे अपने मानस में साधनोपयोगी निर्मल, परिपक्व पृष्ठभूमि तैयार करनी होती है।
__ अधिमुक्ति का सम्बन्ध उन साधकों से है, जो साधना में ऊँचे उठे हुए हैं, जिनका बोध परिपक्व है, जो दृढ़ आस्था या विश्वास की मनःस्थिति में आने में समर्थ हैं।
[ ११८ ] सर्वान् देवान् नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः ।
जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ - जो सभी देवों को नमस्कार करते हैं, किसी एक ही देव तक सीमित नहीं रहते, जो इन्द्रियजयो होते हैं, क्रोध को नियन्त्रित रखते हैं, वे साधनापथ में अवरोध उत्पन्न करने वाले दुर्गों-संकटों, कठिनाइयों या विघ्नों के गढ़ों को लांघ जाते हैं-पार कर जाते हैं।
[ ११९ ] चारिसंजोवनोचारन्याय एष सतां मतः ।
नान्ययाऽवेष्टसिद्धिः स्याद् विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ सौम्यचेता पुरुष इस विषय में 'चारि-संजीवनी-चार-न्याय, को ही
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