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पूर्वसेवा | ११५ असदव्ययपरित्यागः स्थाने चैतक्रिया सदा । प्रधानकार्ये निर्बन्धः प्रमादस्य विवर्जनम् ॥ लोकाचारानुवृत्तिश्च सर्वत्रौचित्यपालनम् । प्रवृत्तिहिते नेति प्राणः कण्ठागतैरपि ॥
लोक-निन्दा से भय, सहायतापेक्षी जनों को सहयोग करने में उत्साह, दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये गये उपकार या सहयोग के लिए कृतज्ञ भाव, प्रज्ञापूर्ण शिष्टता, निन्दा का सर्वत्र परित्याग, सत्पुरुषों की गुण-प्रशस्ति. आपत्ति या विपन्नता में अत्यन्त अदीन-भाव, सुदृढ़ सहिष्णुता, संपत्ति या संपन्नता में नम्रता, बोलने के प्रसंग में मितभाषिता एवं अविसंवादिता-- अपनी बात अपने ही कथन से न काटना-संगतभाषिता, ग्रहण की हुई प्रतिज्ञाओं का पालन, कुल क्रमागत धर्म-कृत्यों का अनुसरण, असद्व्यय का परित्याग-अयोग्य कार्यों में धन खर्च न करना, योग्य कार्यों में धन खर्च करना, प्रमुख या प्राथमिक कार्यों में अनिवार्य तत्परता, प्रमाद-आलस्य का वर्जन, लोकाभिमत आचार का अनुवर्तन, उचित बात का सर्वत्र परिपालन, निन्दित कार्यों में प्राणपण से अप्रवृत्ति-मरने तक की नौबत आ जाने पर भी निन्दित काम नहीं करना-इन सबका सदाचार में समावेश है।
[ १३१ ] तपोऽपि च यथाशक्ति कर्तव्यं पापतापनम् ।
तच्च चान्द्रायणं कृच्छ मृत्युघ्नं पापसूदनम् ॥
साधक को यथाशक्ति पापनाशक तप का आचरण करना चाहिए । वह चान्द्रायण, कृच्छ्र. मृत्युघ्न, पापसूदन इत्यादि अनेक रूप में है ।
[ १३२ ] एकैकं वर्धयेद् ग्रासं शुक्ले कृष्णे च हापयेत् । भुजीत नामावस्यायामेष चान्द्रायणो विधिः ॥
शुक्ल पक्ष में भोजन में प्रतिदिन एक-एक ग्रास बढ़ाते जाना चाहिए तथा कृष्ण पक्ष में एक-एक ग्रास घटाना चाहिए। अमावस्या को भोजन नहीं करना चाहिए । यह चान्द्रायण व्रत्त की विधि है।
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