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११४ | योगबिन्दु दे, जो उसके लिए अहितकर हो, तो वह सर्वया अनुचित है । इसी प्रकार दिया गया दान लेने वाले के लिए अहितकर न होकर हितप्रद होना चाहिए और उसी तरह देने वाले के लिए भी।
[ १२५ ] धर्मस्यादिपदं दानं, दानं दारिद्र यनाशनम् ।
जनप्रियकरं दानं, दानं कीर्त्यादिवर्धनम् ॥
दान धर्म के चार' पदों में प्रथम पद है। दान दारिद्र्य-क्लेश का नाशक है । दान लोकप्रियता देता है। दान यश आदि का संवर्धन करता है।
दान से संबद्ध इस विवेचन की गहराई में जाएं तो प्रतीत होगा कि आचार्य हरिभद्र जहाँ बहुत बड़े दार्शनिक, तत्त्व-निष्णात मनीषी थे, वहाँ अत्यन्त व्यावहारिक भी थे। उन्होंने दान के प्रसंग में जो यह सूचित किया है कि अपने पोष्यवर्ग-आश्रित जन, पारिवारिक जन एवं भृत्यवृन्द आदि को कष्ट न हो, यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है। ऐसे पुण्यलोभी भावुक दानी भी यत्र-तत्र देखे जाते हैं, जिनके घर वाले या उन पर निर्भर लोग कष्ट पाते रहते हैं, असुविधाएं झेलते रहते हैं और वे पुण्य के लोभ में अन्यों को दान देते जाते हैं । आचार्य ने यहाँ अपने आश्रितों के प्रति हर किसी का जो कर्तव्य है, उसे बड़ी सुन्दरता से सुझाया है ।
[ १२६-१३० ] लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः ।। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्तिता ॥ सर्वत्र निन्दासंत्यागो वर्णवादश्च साधुषु । आपद्यदैन्यमत्यन्तं तद्वत् संपदि नम्रता ॥ प्रस्तावे मितभाषित्वमविसंवादनं तथा । प्रतिपन्नक्रिया चेति कुलधर्मानुपालनम् ॥
१. धर्म के चार पद-दान, शील, तप, भावना ।
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