________________
११० | योगबिन्दु
[१११-११५ ) . पूजनं चास्य विज्ञयं त्रिसन्ध्यौं नमनक्रिया । तस्यानवसरेऽप्युच्चैश्चेतस्यारोपितस्य तु ॥ अभ्युत्थानादियोगश्च तदन्ते निभृतासनम् । नामग्रहश्च नास्थाने नावर्णश्रवणं क्वचित् ॥ साराणां च यथाशक्ति वस्त्रादीनां निवेदनम् । परलोकक्रियाणां च कारणं तेन सर्वदा ॥ त्यागश्च तदनिष्टानां तदिष्टेषु प्रवर्तनम् ।
औचित्येन त्विदं ज्ञेयं प्राहुर्धर्माद्यपीडया ॥ तदासनाद्यभोगश्च तीर्थे तद्वित्तयोजनम् । तबिम्बन्याससंस्कार ऊर्ध्व देहक्रिया परा
इन पूज्य गरुजनों को तीनों सन्ध्या-प्रातः, मध्यान्ह तथा सायंकाल प्रणाम करना, वैसा अवसर न हो- समीप उपस्थित होकर प्रणाम करने का मौका न हो तो चित्त में उन्हें आदर व श्रद्धापूर्वक स्मरण करनामन से प्रणाम करना, वे (गुरुजन) यदि अपनी ओर आते हों तो उठकर उनके सामने जाना, उनकी सन्निधि में चुपचाप बैठना, अयोग्य स्थान में उनका नाम न लेना-नामोच्चारण न करना, कहीं भी उनका अवर्णवाद निन्दा न सुनना, यथाशक्ति उत्तम वस्त्र आदि भेंट करना, परलोक में श्रेष्ठ फलप्रद धर्म-क्रिया के संपादन में उन्हें सदा सहयोग देना, जो उन्हें इष्ट न हों-जिन्हें वे पसन्द नहीं करते हों, वैसे कार्यों का त्याग करना, जो उन्हें इष्ट हों-जिन्हें वे पसन्द करते हों, वैसे कार्य करना, औचित्यपूर्वक इन दोनों प्रकार के कार्यों का निर्वाह करना, जिससे उनके धर्माराधन आदि में बाधा, असुविधा न हो, उनके आसन आदि उपयोग में न लेना, उनके द्रव्य का धर्मस्थान में विनियोग करना, स-समारोह उनके बिम्ब स्थापित करना, उनकी ऊर्ध्वदेहक्रिया-मरणोपरान्त किये जाने वाले उनके दाह-संस्कार आदि कार्य अत्यन्त सम्मानपूर्वक समायोजित करना-ये सब गुरुजन के पूजन के अन्तर्गत हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org