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लोकपक्ति | १०५
. [ ६३ ] तस्मादचरमावर्तेष्वध्यात्म नैव युज्यते ।
कायस्थिततरोर्यद्वत् तज्जन्मस्वामरं सुखम् ॥
इस कारण चरम पुद्गलावर्त को छोड़कर अन्यत्र आत्मा अध्यात्म योग को प्राप्त नहीं कर सकती, जैसे वनस्पति-काय में स्थित जीव अनेक जन्म-जन्मान्तर तक उसी कोटि (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय) में भटकता रहता है, स्वर्ग-सुख नहीं पा सकता।
[ ६४ ] तेजसानां च जीवानां भव्यानामपि नो तदा । यथा चारित्रमित्येवं नान्यदा योगसंभवः ॥
वे भव्य-अन्तत: मोक्ष पाने की योग्यता रखनेवाले जीव, जो तेजस्काय में स्थित हैं, चारित्र प्राप्त नहीं कर सकते, वैसे ही वे जीव, जो चरमपुद्गलपरावर्त से पूर्वतन पुद्गल परावर्तों की श्रृंखला में विद्यमान हैं, योग नहीं साध सकते।
[ ६५ ] तृणादीनां च भावानां योग्यानामपि नो यथा ।
तदा घृतादिभाव: स्यात् तद्वद्योगोऽपि नान्यदा ॥
यद्यपि तृण-घास आदि में घृत, दूध, दही आदि बनने की योग्यता है पर जब तक वे अपनी तृणादिरूप अवस्था में विद्यमान हैं, तब तक घृतादिभाव प्राप्त नहीं कर सकते, वैसे ही वे जीव, जो अन्तिम पुद्गल परावर्त से पूर्वतन परावर्तों में हैं, योग प्राप्त नहीं कर सकते।
[ ६६ ] नवनीतादिकल्पस्तत्तद्भावेऽत्र निबन्धनम् ।
पुद्गलानां परावर्तश्चरमो न्यायसंगतम् जैसे अनुकूल संयोग मिलने पर घास आदि मक्खन आदि के रूप में
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