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१०४ | योगबिन्दु
[ ८६ ] भवाभिनन्दिनो लोकपक्त्या धर्मक्रियामपि । महतो होनहष्ट्योच्चै?रन्तां तद्विदो विदुः ॥
भवाभिनन्दी जीव धर्म-क्रिया भी लोकानुरंजन के लिए करते हैं । यों वे महान् धर्म को हीन दृष्टि से प्रयोग में लेते हैं, जिससे उनकी वह क्रिया अत्यन्त दुःखरूप फलप्रद पापमय क्रिया है । योगवेत्ता ऐसा मानते हैं ।
[ ९० ] धर्मार्थ लोकपक्तिः स्यात् कल्याणांगं महाम तेः ।
तदर्थ तु पुनर्धर्मः पापायाल्पधियामलम्
अत्यन्त बुद्धिशाली पुरुष लोकपक्ति-जनानुरंजन के कार्य धर्म के निमित्त करते हैं, जिससे उनका कल्याण सिद्ध होता है। किन्तु लोकरंजन हेतु किया गया धर्म का आचरण अल्पबुद्धि मनुष्यों के पाप के लिए ही होता है।
[ ६१ ] लोकपक्तिमतः प्राहुरनाभोगवतो वरम् । धर्मक्रियां न महतो होनताऽत्र यतस्तथा ॥
लोकपक्ति में ग्रस्त होते हुए भी अनाभोगिक मिथ्यात्वी की धर्मक्रिया विशेष अनर्थकर नहीं होती। अभिगृहीत-मिथ्यात्वी की धर्मक्रिया क्योंकि वह हीन बुद्धि द्वारा की जाती है, अनर्थकर होती है ।
[ २ ] तत्त्वेन तु पुन:काऽप्यत्र धर्मक्रिया · मता ।
तत्प्रवृत्त्यादिवैगुण्याल्लोभक्रोधक्रिया यथा
तात्त्विक दृष्टि से तो उक्त रूप में दोनों ही प्रकार से की गई धर्मक्रिया याथार्थ्य की सीमा में नहीं आतीं, क्योंकि दोनों में ही सत्तथ्यमूलक प्रवृत्ति, विघ्न-जय, सिद्धि, विनयोग तथा प्रणिधान का असद्भाव होता है। साथ ही साथ वहाँ लोभ एवं क्रोध जैसी वृत्तियाँ भी अन्तनिहित होती हैं।
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