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लोकपक्ति | १०३
उक्त विषय में और विवेचन न कर हम प्रस्तुत विषय-अध्यात्मयोग पर आ रहे हैं, जो चरम पुद्गलावर्त में प्रविष्ट व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं। क्योंकि वे (दूसरे) तीव्र पापाचरण में ग्रस्त होते हैं, वे ज्ञान रूपी नेत्र से रहित होते हैं । गहन वन में खोये हुए अन्धे की तरह वे सन्मार्ग प्राप्त नहीं कर सकते ।
[ ८६ ]
भवाभिनन्दिनः प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दुःखिताः । केचिद्धर्मकृतोऽपि स्युलॊकपक्तिकृतादरा: ॥
चरमपुद् गलावर्ती प्राणियों के अतिरिक्त अन्य लोग संसार में रचेपचे रहते हैं-वे सांसारिक भोगोपभोग में आनन्द लेते हैं । वे प्रायः आहारसंज्ञा, भय-संज्ञा तथा मैथुन-संज्ञा-इन तीन अन्तबुभुक्षाओं में लिप्त रहते हैं, दुःखो होते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं, जो धर्म-क्रिया भी करते हैं किन्तु केवल लोक-व्यहार साधने के लिए । वे भवाभिनन्दी कहे जाते हैं।
[ ८७ ] क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनन्दो स्यान्निष्फलारम्भसंगतः ॥
भवाभिनन्दी जीव क्षुद्र-तुच्छ, लाभरति-हर समय अपने स्वार्थ में लीन रहने वाला, मत्सरी-ईर्ष्यालु, भयभीत, शठ-धूर्त, जालसाज, अज्ञ-अज्ञानी होता है तथा वह निरर्थक कार्यों में लगा रहता है ।
[ ८८ ] लोकाराधनहेतोर्या मलिनेनान्तरात्मना । क्रियते सस्क्रिया साऽत्र लोकपक्तिरुदाहृता
लोकाराधन-लोगों को प्रसन्न करने हेतु मलिन भावना द्वारा जो सक्रिया की जाती है, उसे लोकपक्ति कहा गया है।
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