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अध्यात्म | १०१
पानपाहनात्
॥
आत्मा का कर्म के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार से संयोग होता है। अतएव उसके भिन्न-रूप देखने में आते हैं। इस भिन्नता का कारण जीव के अपने स्वभाव या प्रकृति को छोड़कर और दूसरा नहीं है । वास्तव में यही यथार्थ कारण है, ऐसा मानना चाहिए।
[ ७८ ] स्वभाववादापत्तिश्चेदत्र को दोष उच्यताम् ।
तदन्यवादाभावश्चेन्न तदन्यानपोहनात्
स्वभाव से कार्य होता है, ऐसा मानने से स्वभाववाद का दोष आता है, यों आरोप किया जा सकता है । पर जरा बतलाएं, इसमें क्या हानि है। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इस वाद के स्वीकार का अभिप्राय वस्तु-स्वभाव के अतिरिक्त दूसरे तत्त्व की कारण रूप में अस्वीकृति है। वास्तव में यहाँ ऐसा आशय नहीं है।
[ ७६ ] कालादिसचिवश्चायमिष्ट एव महात्मभिः ।
सर्वत्र व्यापकत्वेन न च युक्त्या न युज्यते ॥
काल आदि के सहयोग से कार्य की सिद्धि होती है, ऐसा महापुरुषों ने स्वीकार किया है। काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ तथा कर्म-ये पांचों निमित्त कारण सर्वत्र--उपादान कारण में एवं उपादेय कार्यों में परिव्याप्त रहते हैं । युक्ति से यह सिद्ध नहीं होता हो ऐसा नहीं है, यह सिद्ध होता है।
[ ८० ] तथात्मपरिणामात् तु कर्मबंधस्ततोऽपि च । तथा दुःखादि कालेन तत्स्वभावादृते कथम् ॥
आत्मा के परिणाम से कर्म-बन्ध होता है। बन्धावस्था के अनुरूप विपाकोदय होने पर कर्म यथासमय दुःख, सुख आदि के रूप में फल देता है। आत्मा के स्वभाव के बिना यह सब कैसे संभव हो ?
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