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..६४ | योगबिन्दु ‘फिर आत्मा, कर्म, उनका पारस्परिक सम्बन्ध आदि के निश्चय में भी योगिप्रत्यक्ष को मानना उचित है । यह वास्तव में चिन्तन योग्य विषय है ।
५० ] अयोगिनो हि प्रत्यक्षगोचरातीत मप्यलम् । विजानात्येतदेवं च बाधाऽत्रापि न विद्यते
अयोगी जिसे प्रत्यक्ष रूप में नहीं देख पाता, योगी उसे अतीन्द्रिय ज्ञान (योगि-प्रत्यक्ष) द्वारा अच्छी तरह देख सकता है। ऐसे विशिष्ट ज्ञान द्वारा आत्मा, कर्म आदि को जानने में भी वास्तव में कोई बाधा नहीं आती।
ग्रन्थकार ने इन दो श्लोकों में आत्मा, कर्म आदि की चर्चा इसलिए की है कि मीमांसक योगि-प्रत्यक्ष को आत्मा आदि के अवबोध में यथावत्तया लागू नहीं करते।
[ ५१ ] आत्माद्यतीन्द्रियं वस्तु योगिप्रत्यक्षभावतः । परोक्षमपि चान्येषां न हि युक्त्या न युज्यते ॥
आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थ योगियों को साक्षात् दृष्ट या अनुभूत हैं । अतः अन्य जनों-अयोगियों के लिए परोक्ष-अप्रत्यक्ष होते हुए भी 'वे नहीं हैं' ऐसा कहना अयुक्तियुक्त है। क्योंकि योगि-प्रत्यक्ष के आधार पर उनका अस्तित्व न्यायत: उन सबके लिए भी स्वीकार्य है, जो वैसे उत्तम अतीन्द्रिय ज्ञान के अभाव में उन्हें साक्षात् देख पाने में समर्थ नहीं हैं।।
[ ५२-५३-५४ ] किचान्यद् योगत: स्थर्य धैर्य श्रद्धा च जायते । मैत्री जनप्रियत्वं च प्रातिभं तत्तभासनम् ॥ विनिवृत्ताग्रहत्वं च तथा द्वन्द्वसहिष्णुता । तदभावश्च लाभश्च बाह्यानां कालसंगतः धृतिः क्षमा सदाचारो योगवृद्धिः शुभोदया । आदेयता गुरुत्वं च शमसौल्यमनुत्तमम् ॥
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