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८२ | योगबिन्दु अथवा शुद्ध लक्ष्य लिये हुए हैं। आत्मकल्याणेच्छु प्रज्ञाशील पुरुषों को चाहिए कि वे इसका मार्गण-गवेषणा या अनुसन्धान करें।
गोचरश्च स्वरूपं च फलं च यदि युज्यते ।
अस्य योगस्ततोऽयं यन्मुख्यशब्दार्थयोगतः ॥
यदि इसका लक्ष्य, स्वरूप तथा फल उपयुक्त-संगत है तो वस्तुतः इसकी योग संज्ञा सार्थक है क्योंकि यह अपने मुख्य शाब्दिक अर्थ-योग > योजन :- मोक्ष से योजन या जोड़ना-पे संवलित है।
आत्मा तदन्यसंयोगात् संसारी तद्वियोगतः । स एव मुक्त एतौ च तत्स्वाभाव्यात् तयोस्तथा ॥
जीव तदन्य-अपने से अन्य-कर्म-पुद्गलों के संयोग से संसारीसंसारावस्थापन्न है तथा उनके वियोग से-अपगत हो जाने से मुक्त हो जाता है । संसारावस्था एवं मुक्तावस्था आत्मा और कर्म-पुद्गलों के स्वभाव पर आश्रित है। पुद्गल-सम्बद्धता के कारण संसारावस्था है तथा अपने शुद्ध स्वभाव में आने के कारण मुक्तावस्था है, जिसका शाब्दिक अर्थ कर्म-पुद्गलों से छुटकारा है।
अन्यतोऽनुग्रहोऽप्यत्र तत्स्वाभाव्यनिबन्धनः ।
अतोऽन्यथा त्वदः सवं न मुख्यमुपपद्यते ॥
दूसरे का-देव आदि का अनुग्रह प्राप्त करना भी आत्मा के लिए घटित होता है क्योंकि उसकी वैसी प्रकृति है । यदि ऐसा न माना जाए तो वह सब, जो इस सन्दर्भ में निरूपित तथा अभिमत है, महत्त्वहीन हो जायेगा।
प्रस्तुत श्लोक के तीसरे,चौथे चरण का एक और प्रकार से भी अर्थ किया जा सकता है, जैसे-यदि दूसरी तरह से सोचें तो निश्चय-दृष्टि से यह अनुग्राहक अनुग्राह्य-भाव मुख्य नहीं है, मात्र व्यवहार है ।
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