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७६ | योगदृष्टि समुच्चय
जुगनू का तेज-प्रकाश अल्प-बहुत थोड़ा तथा विनश्वर है। सूर्य — का तेज उसके विपरीत -बहुत अधिक-विराट-अपरिसीम तथा अविन'श्वर है।
फलित यह हआ-तात्त्विक पक्षपात का स्वरूप पूर्य के तेज की तरह अत्यन्त विशाल तथा नाशरहित है। भावशून्य क्रिया जुगनू के तेज की तरह अत्यन्त अल्प. तुच्छ और नाशयुक्त है ।
। २२५ ] श्रवणे प्रार्थनीया स्युन हि योग्याः कदाचन । यत्नः कल्याणसत्त्वानां महारत्ने स्थितो यतः ॥
योग्य पुरुषों को-ऊपर वणित कुलयोगियों तथा प्रवृत्तचक्रयोगियों को शास्त्र-श्रवण की प्रार्थना-अनुरोध करना कदापि योग्य नहीं है। कल्याणसत्त्व-अवश्य कल्याण प्राप्त करने वाले महान पूण्यशाली उन योगी पुरुषों का शुश्रूषा आदि गुणों की स्वायत्तता के कारण अध्यात्मयोग के श्रवण में तथा तत्प्रसूत साधना रूप महारत्न-परम मूल्यवान, रत्न को अधिगत करने में स्वत: यत्न करता ही है । क्योंकि उन्हें यह संस्कार प्राप्त है । वे इस ग्रन्थ के श्रवण में सहज ही प्रवृत्त होंगे।
[ २२६ ] नैतद्विदस्त्वयोग्येभ्यो ददत्येनं तथापि तु । हरिभद्र इदं प्राह नंतेभ्यो देय आदरात् ॥
योग-मार्ग के वेत्ता आचार्य अयोग्य पुरुषों को यह ग्रन्थ नहीं देते· नहीं पढ़ाते, नहीं सुनाते । ग्रन्थकार आचार्य हरिभद्र आदरपूर्वक कहते हैं कि अयोग्य जनों को यह ग्रन्थ देना योग्य नहीं है।
अयोग्य पुरुष इस महान् योग ग्रन्थ के पात्र नहीं हैं अतः योगाचार्य उन्हें यह ग्रन्थ देने का स्पष्ट निषेध करते हैं । आचार्य हरिभद्र इसी तथ्य · को कोमल, मृदुल शब्दों में कहते हैं, जो उन द्वारा प्रयुक्त 'आदरात्' शब्द से स्पष्ट है।
वस्तुतः बात यह है, योग्य अधिकारी के पास योग्य वस्तु पहुंचती है, तो उसका सदुपयोग होता है, अयोग्य के पास पहुंचने से दुरुपयोग ही होता
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