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७४ | योगदृष्टि समुच्चय
इस योग की प्राप्ति से पूर्व भी क्रिया तो होती रही है, अनन्तकाल से जीव अनन्त क्रियाएँ करता रहा है, पर जीवन का परम साध्य जो शुभ, अशुभ से अतीत शुद्धावस्था है, उस ओर सत्पुरुषों के योग बिना प्रयाण नहीं हुआ । सत्पुरुषों के योग रूप योगावंचक के प्राप्त हो जाने पर साधक की स्थिति बदल जाती है । उसका क्रिया - समुदाय पारमार्थिक बन जाता है । इसलिए उससे महापापक्षय निष्पन्न होता है ।
[ २२१ ]
फलावंच कयोगस्त
सद्भ्य एव नियोगतः ।
सानुबन्धफलावाप्तिर्धर्मसिद्धौ सतां मता ॥
सत्पुरुषों के सदुपदेश से धर्मसिद्धि - आत्मधर्म - आत्मस्वरूप के साक्षात्कार में सानुबन्ध - एक से एक जुड़े हुए - उत्तरोत्तर उत्तम फलों की प्राप्ति होती है । यह फलावंचक योग है |
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सत्पुरुषों के सान्निध्य सुयोगरूप योगावंचक, तत्पश्चात् क्रियावंचक योग के सध जाने पर जो फल प्राप्त होता है, वह स्वभावतः अवंचक होता है। वंचक से वंचक और अवंचक से अवंचक प्रसूत होता है । फिर सद्गुरु के सदुपदेश का अवलम्बन और मिल जाता है । साधक का क्रियायोग उत्तरोत्तर अभ्युदय पाता जाता है । यों सहजता उसके फलावंचक योगावस्था सिद्ध होती है । यह सत्पुरुषों का अभिमत है ।
[ २२२ 1
कुलावियोगिनामस्मान्मत्तोऽपि
जब्धीमताम् ।
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श्रवणात् पक्षपातादेरुपकारोऽस्ति लेशत:
आचार्य अपने इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में कहते हैं :- कुलयोगियों तथा प्रवृत्तचक्र योगियों में, जो मुझसे भी मन्दबुद्धि हैं, इस ग्रन्थ के श्रवण से पक्षपात - शुभेच्छा आदि भाव जागरित होंगे, उनका यत्किंचित् उपकार होगा । अर्थात् वैसे साधक इस सद्ग्रन्थ को सुनेंगे, गुणग्राहिता के कारण प्रमुदित होंगे, सत्तत्त्व ज्ञान में पक्षपात होगा, अभिरुचि बढ़ेगी, भक्ति स्फुरित होगी, योगमार्ग का प्रबोध होगा, उसमें संप्रवृत्त होने की अभिलाषा जागरित होगी, संप्राप्त योगबीज परिपुष्ट होंगे, उनमें से प्रकृष्ट योगसाधना के अंकुर
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