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कान्ता-दृष्टि | ५१
[ १६३ ] अस्यां तु धर्ममाहात्म्यात् समाचारविशुद्धितः । 'प्रियो भवति भूतानां धर्मेकानमनास्तथा ॥
इस दृष्टि में संस्थित योगी धर्म की महिमा तथा सम्यक् आचार की विशुद्धि के कारण सब प्राणियों का प्रिय होता है-सब जीवों को वह प्रीतिकर प्रतीत होता है। उसका मन धर्म में एकाग्र-तन्मय हो जाता है।
[ १६४ ] श्रुतधर्मे मनो नित्यं कायस्त्वस्यान्यचेष्टिते ।
अतस्त्वाक्षेपकज्ञानान्न भोगा भवहेतवः ॥
इस दृष्टि वाला योगी आत्मधर्म की इतनी दृढ़ भावना लिए होता है कि चाहे वह शरीर से अन्यान्य कार्यों में लगा हो पर उसका मन सदा सद्गुरुजन से सुने हुए, सीखे हुए आगम में तल्लीन रहता है । वह योगी सदा आक्षेपक-सहज स्वभाव की ओर आकृष्ट करने वाले ज्ञान से युक्त होता है—एक ऐसी दिव्य ज्ञानानुभूति उसे रहती है, जिससे अनुप्राणित होता हुआ वह सतत सहजावस्था-आत्मभाव की ओर खिंचा रहता है। अतः अनासक्त भाव से भोगे जाते सांसारिक भोग उसके लिए भवहेतुसंसार के कारण-जन्म-मरण के चक्र में भटकाने वाले नहीं होते।
[ १६५ ] मायाम्भस्तत्त्वतः पश्यन्ननुद्विग्नस्ततो द्रुतम् । तन्मध्येन प्रयात्येव यथा व्याघातवजितः॥
जो पुरुष मृगमरीचिका के जल को वस्तुतः जानता है-उसके मिथ्या कल्पित अस्तित्व को समझता है, वह जरा भी उद्विग्न हुए बिना-घबराये बिना निर्विघ्नतया उसके बीच से चला जाता है। अर्थात् जल तो वहाँ है नहीं, केवल भ्रम है । जो उसकी यथार्थता समझ लेता है, वह भ्रान्त नहीं होता, अतः भयभीत भी नहीं होता । भय का कोई कारण भी तो वहाँ नहीं है। भय तो केवल भ्रान्तिजन्य है।
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