________________
७० | योगदृष्टि समुच्चय
[ २१३ ] आद्यावञ्चकयोगाप्त्या तदन्यद्वयलाभिनः ।
एतेऽधिकारिणो योगप्रयोगस्येति तद्विदः ॥
ये प्रवृत्तचक्रयोगी आद्य-अवञ्चक-योग-अवञ्चक प्राप्त कर चुकते है । योग-अवञ्चक प्राप्त करने का यह अमोघ प्रभाव होता है, उन्हें दूसरे दो-क्रिया-अवञ्चक तथा फल-अवञ्चक सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। यों इन योगियों के तीनों अवंचक स्वायत्त हो जाते हैं। ऐसे योगी ही योगप्रयोग-योग विद्या या योग-साधना के प्रयोग के अधिकारी हैं । योगविद्या आध्यात्मिक विज्ञान है । अधिकारी जहाँ इससे महत्त्वपूर्ण प्रयोग द्वारा असीम लाभ उठा सकते हैं, वहाँ अनधिकारी हानि उठा लेते हैं ।
[ २१४ ] इहाऽहिंसादयः पञ्च सुप्रसिद्धा यमाः सताम् ।
अपरिग्रहपर्यन्तास्तथेच्छादिचतुर्विधाः
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह-ये पाँच यम साधकों में सुप्रसिद्ध-सुप्रचलित हैं । इनमें अहिंसा से अपरिग्रह तक प्रत्येक के इच्छायम, प्रवत्तियम, स्थिरयम तथा सिद्धियम के रूप में चार-चार भेद हैं । ये चारों भेद अहिंसा आदि यमों की तरतमता या विकासकोटि की दृष्टि से हैं, उनके ऋमिक अभिवर्धन के सूचक हैं।
इन भेदों के आधार पर निम्नांकित रूप में यम बीस प्रकार के होते हैं:अहिंसा
१. इच्छा-अहिंसा, २. प्रवृत्ति-अहिंसा, ३. स्थिर-अहिंसा, ४. सिद्धि-अहिंसा ।
सत्य
५. इच्छा-सत्य, ७. स्थिर-सत्य,
६. प्रवृत्ति-सत्य, ८. सिद्धि-सत्य।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org