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६६ | योगदृष्टि समुच्चय
संसारी तदभावो वा तदन्यो वा तथैव हि । मुक्तोऽपि हन्त नो मुक्तो मुख्यवृत्त्येति तद्विदः ॥
जो व्याधियुक्त-रोग सहित है, उसे व्याधिमुक्त नहीं कहा जा सकता । जहाँ व्याधियुक्त का अभाव है--व्याधियुक्त पुरुष जहाँ है ही नहीं, वहाँ भी व्याधिमुक्त का प्रयोग नहीं होता। क्योंकि व्याधियुक्त होने पर ही व्याधि छूट जाने पर व्याधिमुक्त संज्ञा होती है। व्याधियुक्त पुरुष से अन्य व्यक्ति--उसके पुत्र, बन्धु, मित्र आदि को या तद्भिन्न और किसी को व्याधिमुक्त नहीं कहा जा सकता। उनमें से जब कोई व्याधिग्रस्त नहीं, तो फिर मुक्त कैसे कहे जायेंगे। - इस दृष्टान्त के अनुसार जो जीव संसारी-संसारावस्थापन्न है, उसे मुक्त-संसारमुक्त नहीं कहा जा सकता है, जहाँ संसारो पुरुष का अभाव है, वहाँ संसारमुक्त का प्रयोग नहीं घटता, जो संसारी पुरुष से एकान्त भिन्न है, उो भी संसारमुक्त नहीं कहा जा सकता।
यहाँ यह ज्ञातव्य है, शुद्ध निश्चयनय के अनुसार सभी जीवों को मुक्त या सिद्ध सदृश कहा गया है पर यथार्थतः पारमार्थिक मुक्तावस्था के बिना-मोक्ष की प्रवृत्तिनिमित्तता के अभाव में उक्त तीनों ही अवस्थाओं में 'मुक्त' का कथन घटित नहीं होता।
[ २०६ ] क्षीणव्याधिर्यथा लोके व्याधिमुक्त इति स्थितः । भवरोग्येव तु तथा मुक्तस्तन्त्रेषु तत्क्षयात् ॥
जैसे व्याधियुक्त पुरुष व्याधि का क्षय-नाश हो जाने पर क्षीण व्याधि होता है, उसी प्रकार ससार जन्म-मरण के रोग से ग्रस्त पुरुष'उस रोग का-संसारावस्था का क्षय हो जाने पर मुक्त हो जाता है । ऐसा शास्त्रों में निर्देश है। कुलयोगी आदि का स्वरूप
[ २०७ ] अनेकयोगशास्त्रेभ्यः संक्षेपेण समुद्धतः । दृष्टिभेदेन योगोऽयमात्मानुस्मृतये परः ॥
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