________________
५० | योगदृष्टि समुच्चय
कान्ता-ष्टि
[ १६२ ] कान्तायामेतदन्येषां प्रोतये धारणा परा । अतोऽत्र नान्यमुन्नित्यं मीमांसाऽस्ति हितोदय ।।
कान्ता-दृष्टि में पूर्व वणित नित्य-दर्शन-अविच्छिन्न सम्यक्दर्शन आदि विद्यमान रहते हैं। इस दृष्टि में स्थित योगी के व्यक्तित्व में एक ऐसा वैशिष्ट्य आ जाता है कि उसके सम्यकदर्शन आदि सद्गुण औरों के लिए सहजतया प्रीतिकर होते हैं, औरों के मन में उसे देख द्विष्ट भाव नहीं आता, प्रीति उमड़ती है।
यहाँ योगी के धारणा-नामक छठा योगांग, जिसका तात्पर्य चित्त को नाभिचक्र, हृदयकमल आदि शरीर के आभ्यन्तर या सूर्य, चन्द्र आदि बाह्य स्थान में लगाना है,' सधता है। यों धारणानिष्ठ हो जाने पर योगी को अन्यत्र-आत्मरमण के अतिरिक्त अन्य विषयों में मोद या हर्ष नहीं होता-वह जरा भी उनमें रस नहीं लेता।
सूक्ष्मबोध उसे पूर्वतन दृष्टि में प्राप्त हो चुका होता है, वह इसमें चिन्तन, मनन, निदिध्यासनमूलक मीमांसा करता है, सद्विचारणा में तल्लीन रहता है, जिसकी फलनिष्पत्ति आत्मा के उत्कर्ष में होती है।
इस दृष्टि का नाम कान्ता अनेक अपेक्षाओं से संगत है। कान्ता का एक अर्थ पतिव्रता नारी है। पतिव्रता नारी घर के सभी कार्य करती है पर उसका मन प्रतिक्षण अपने पति में रहता है। उसी प्रकार इस दृष्टि में स्थित योगी का चित्त कर्तव्यवश सांसारिक कार्य करते हुए भी श्रेतधर्म में-अध्यात्म में लीन रहता है। अथवा इस दष्टि में स्थित योगी सभी को बड़ा कान्त-प्रिय लगता है, इसलिए इसे कान्ता कहा जाना उपयुक्त है । अथवा यह दृष्टि योगीजनों को बड़ी कान्त-प्रीतिकर-प्रिय है, अतः इसे कान्त नाम से अभिहित किया गया है।
१ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।
-पातंजल योगसूत्र ३-१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org