________________
पग दृष्टि | ५७
उत्सुकता थी। नियोजन-काल में वह उस स्थिति से ऊँचा उठा हुआ है । वहाँ वह प्राप्त ज्ञान या निपुणता का बुद्धिमत्तापूर्वक उपयोग करता है। यही स्थिति इस दृष्टि में संस्थित योगी की है। उसकी पहले की आचार-क्रिया तथा अब की आचार-क्रिया फलभेद की दृष्टि से सर्वथा भिन्न होती है ।
. [ १८१ ] तन्नियोगान्महात्मेह कृतकृत्यो यथा भवेत् । । तथाऽयं धर्मसंन्यासविनियोगान्महामुनिः ॥
सुयोग्य जौहरी रत्न के सद्विनियोग से लाभप्रद व्यवसाय से अपने को कृतकृत्य मानता है, वैसे ही वह महान् योगी धर्म-संन्यास-शुद्ध दृष्टि से तात्त्विक आचरणमूलक, नैश्चयिक शुद्ध व्यवहारमय विशिष्ट योग द्वारा अपने को कृतकृत्य मानता है।
[ १८२ ] द्वितीयापूर्वकरणे
मुख्योऽयमुपजायते । । केवलश्रीस्ततश्चास्य नि:सपत्ना सदोदया ॥
मुख्य-तात्त्विक द्वितीय अपूर्वकरण में धर्म-संन्यास निष्पन्न होता है । उससे योगी को सदा उत्कर्षशील-प्रतिपात रहित केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी अधिगत होती है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है, प्रथम अपूर्वकरण में ग्रन्थि-भेद होता है। द्वितीय अपूर्वकरण में क्षपकश्रेणी प्राप्त होती है। प्रथम अपूर्वकरण में अनादिकालीन भवभ्रमण के मध्य जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, साधक में ऐसा प्रशस्त, शुभ आत्मपरिणाम उद्भूत होता है। द्वितीय अपूर्वकरण में साधक के परिणामों में अपूर्व निर्मलता तथा पवित्रता का संचार होता है।
[ १८३ ] स्थित: शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवत् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org