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दीपा-दृष्टि | ४५.
[ १४८ ] ग्रहः सर्वत्र तत्त्वेन मुमुक्षूणामसंगतः । मुक्तौ धर्मा अपि प्रायस्त्यक्तव्या किमनेन तत् ।
मोक्षार्थियों को वास्तव में कहीं भी ग्रह---पकड़ रखना असंगत हैसमुचित नहीं है । मुक्तावस्था में तो प्रायः क्षायोपशमिक धर्म भी-कर्मों के क्षय और उपशम से निष्पन्न क्षमा, शील आदि धर्म भी छोड़ देने पड़ते हैं । वहां तो शुद्ध आत्मस्वभाव-मूलक क्षायिक धर्मों की ही अवस्थिति होती है । फिर तुच्छ अनिष्ट ग्रह की तो बात ही क्या !
[ १४६ ] तदत्र महतां वम समाश्रित्य विचक्षणः । वर्तितव्यं _ यथान्यायं तदतिक्रमजितः ॥
सुयोग्य आत्मार्थी पुरुषों को चाहिए, वे महापुरुषों के पथ काजिस पर महापुरुष चलते रहे हैं, जिसका महापुरुषों ने निर्देश किया है, ऐसे मार्ग का अवलम्बन कर यथाविधि उस पर गतिमान् रहें, उसका उल्लं--- घन न करें, उसके विपरीत न चलें।
[ १५० ] परपीडेह सूक्ष्माऽपि वर्जनीया प्रयत्नतः ।
तद्वत्तदुपकारेऽपि यतितव्यं सदैव हि ॥ महापुरुषों का मार्ग है
साधक का यह प्रयास रहे कि उसकी ओर से किसी को जरा भी पीड़ा न पहुँचे । उसी प्रकार उसे सदा दूसरों का उपकार करने का भी प्रयत्न करते रहना चाहिए।
[ १५१ ] गुरवो देवता विप्रा यतयश्च तपोधना । पूजनीया महात्मानः सुप्रयत्नेन चेतसा ॥
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